पुस्तक के विषय में
गांधीजी को पूरी दुनिया महात्मा के रूप में मानती है। उनके विचार समूची मानवता के लिए सार्वकालिक हैं। उनकी स्वयं की यह मान्यता थी कि 'सत्य और अहिंसा' की अवधारणा उतनी ही पुरानी है जितनी यह दुनिया। इसके बावजूद जब कोई महापुरुष मानवता के समक्ष प्राचीन मूल्यों को पेश करता है तो वह उन्हें अर्थ के नये आयाम और गरिमा प्रदान कर देता है।
इस पुस्तक में गांधीजी के जीवन, विचारों, कार्यों और घटना प्रसंगों का वर्णन कर उनकी महानता को दर्शाया गया है।
लेखक जे.बी. कृपलानी 'चंपारण आंदोलन' के समय से ही गांधीजी के सान्निध्य में रहे। उनकी इस निकटता के कारण हमें इस पुस्तक में गांधीजी के विचारों और जीवन दर्शन की विस्तृत प्रामाणिक जानकारी मिलती है।
प्रस्तावना
लगभग तीन वर्ष पूर्व प्रकाशन विभाग के तत्कालीन निदेशक श्री यू-एस. मोहन राव ने मुझे गांधीजी की संक्षिप्त जीवनी लिखने के लिए निमंत्रित किया । मुझे लगा कि वे मुझसे लगभग 60 पेज की पुस्तिका लिखवाना चाह रहे हैं । मैंने अनेक वर्ष पूर्व आकाशवाणी के लिए गांधीजी के जीवन की लघु कथा तैयार की थी, जिसका अधिकारीगण फारसी में प्रसारण के लिए अनुवाद कराना चाहते थे । उसी को संशोधित करके प्रकाशन विभाग को सौंप देने की उम्मीद करके मैंने उस बारे में सोचना बंद कर दिया । विभाग द्वारा लगभग 6 माह बाद मुझे मेरे वचन की याद दिलाए जाने पर मुझे पता लगा कि मुझसे कुछ अधिक विस्तृत कार्य की अपेक्षा की जा रही है । तब मेरे पास समय बहुत कम था । मुझे लगभग तीन माह की अवधि में लोकसभा के दो चुनाव लड़ने पड़े थे । मेरा भाग्य कुछ ऐसा था कि मैं सिर्फ उपचुनाव में ही जीतता था । चुनाव के बाद मैंने अपने द्वारा स्वीकृत कार्य शुरूकर दिया । अपनी सीमाओं के कारण मुझे यह कार्य बहुत भारी लगने लगा ।
गांधीजी के विलक्षण व्यक्तित्व, उनके विचारों, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय राजनैतिक गलतियों तथा अन्याय को दूर करने के लिए संघर्ष की उनकी नवीन तकनीक से न्याय करने वाली जीवनी लिखने के लिए किसी महान एवं सुलझे हुए लेखक की कलम की आवश्यकता थी । अभी तक मेरा सारा लेखन विवादास्पद रहा है, जिस पर राजनैतिक विवाद होते रहे हैं । गांधीजी द्वारा कांग्रेस तथा जनता को प्रदान किए गए नेतृत्व के अंतर्गत जैसे-जैसे मातृभूमि की आजादी का संघर्ष अधिक गंभीर तथा त्वरित होने लगा वैसे-वैसे यह प्रवृत्ति भी बढ़ने लगी । चंपारण (बिहार) में 1917 में गांधीजी के सत्याग्रह के दौरान उनके साथ आ जाने तथा उनके जीवन दर्शन एवं उनकी नई तकनीक कोसमझने के लिए तकलीफदेह प्रयास करने के कारण मैं बहुधा जहां तक संभव था वहां तक संविधान के लिए आदोलन चलाने के समर्थकों द्वारा उनकी निंदा के विरुद्ध गांधीजी के विचारों को सही ठहराने का प्रयास करता था । वह आदोलन तब चल रहा था जबकि भारत में ऐसा कोई लोकतांत्रिक संविधान नहीं था, जिसके माध्यम से सरकार बदली जा सकती । मुझे उन तथाकथित 'वैज्ञानिक' समाजवादियों के विरुद्ध भी उनके विचारों की ढाल बनकर खड़ा होना पड़ता था, जिनका मानना था कि भारत में स्वतंत्रता और समाजवाद को एकसाथ हासिल किया जा सकता है । मुझे निराशावादियों को रचनात्मक कार्यक्रम के महत्व तथा आरंभिक शिक्षा संबंधी गांधीजी की नई योजना के वैज्ञानिक पहलुओं को भी समझाना पड़ता था, लेकिन गांधीजी की सम्पूर्ण जीवनी लिखना मेरे बस की बात नहीं थी । उपलब्ध सामग्री इतनी सारी, बहुआयामी तथा बहुमूल्य थी कि उसमें से छांटना और छोड़ना कठिन था ।
इसके बावजूद मैंने इस पुस्तक में अपनी सम्पूर्ण क्षमता लगाई है । मुझे पता है कि अनेक महत्वपूर्ण घटनाओं का इसमें जिक्र नहीं हुआ होगा । मुझे जब यह बताया गया कि पुस्तक का प्रकाशन गांधीजी के जन्मशताब्दी समारोह के संबंध में किया जा रहा है और इसे अक्टूबर 1969 से पूर्व ही पूरा किया जाना आवश्यक था, तो मेरी परेशानी और बढ़ गई ।
यह सच है कि गांधीजी जब 1915 के आरंभ में अंतत: भारत आए तो उनसे मिलने वालों में देश के राजनैतिक जीवन तथा उसकी स्वतंत्रता में रुचि रखने वाले लोगों में से मैं पहला भले ही न हूं मगर लगभग पहला ही व्यक्ति था । यह उम्मीद रखना स्वाभाविक ही था कि उनसे तीस वर्ष से अधिक काल के जुड़ाव के क्रम में मैंने काफी सारी सामग्री इकट्ठा की होगी, जिसकी क् क्रमबद्ध प्रस्तुति करूंगा तथा उसमें पाठक दिलचस्पी लेंगे । लेकिन गांधीजी से मेरा संपर्क आम धारणा जितना आत्मीय नहीं था । चंपारण के बाद हालांकि मैं पांच वर्ष तक साबरमती आश्रम में उनके एकदम नजदीक रहता था, लेकिन मेरी उनसे बहुधा भेंट नहीं होती थी । तब मैं उनके शीर्ष शैक्षिक संस्थान गुजरात विद्यापीठ का आचार्य (प्रधानाचार्य) था । मैं जब उनसे मिला तो मैंने वैसा सिर्फ उनके स्वास्थ्य के बारे में पूछताछ के लिए किया । वे व्यस्त व्यक्ति थेऔर मेरे पास भी राष्ट्रीय शिक्षा योजना बनाने के महती कार्य के कारण समय नहीं होता था ।
मैं बहुधा उनकी यात्राओं में उनके साथ जाता था तथा उनमें से कुछ का प्रबंध भी करता था । इसके बावजूद उनके साथ मेरा संपर्क व्यक्तिगत की बजाय राजनैतिक अधिक था । मुझे अपनी निजी समस्याओं का दुखड़ा उनसे रोने की आदत नहीं थी । मैंने यह सीखा था कि जैसे वे अपनी समस्याएं स्वयं सुलझाते हैं, वैसे ही मुझे भी करना चाहिए । मैंने उनसे अन्य नेताओं विशेषकर जवाहरलाल की तरह कभी निजी बातचीत नहीं की । मैंने आश्रमवासियों तथा निकट संपर्क में आने वाले लोगों के साथ गांधीजी की फादर कंफेशर (लोगों की गलतियां सुननेवाले पादरी) की भूमिका निभाने की आदत को कभी बढ़ावा नहीं दिया । मुझे यह पता था कि उनमें से कुछ लोग अपनी वास्तविक अथवा काल्पनिक बुराइयों का इकबाल उनका विश्वास जीतने के लिए उनसे करते थे । सच तो यह था कि मुझे कोई निजी समस्या बहुधा होती ही नहीं थी । मैंने उनसे कभी लंबा पत्र-व्यवहार नहीं किया । मुझे जब भी कुछ पूछना होता था तो मैं उनके सचिव महादेव भाई को लिखकर भेज देता था । वे मेरे घनिष्ठ मित्र थे । गांधीजी से मैंने जिन मुट्ठी भर पत्रों का आदान-प्रदान किया था, उनकी भी प्रतिलिपियां मेरे पास नहीं हैं । एक बार क्रांतिकारियों के साथ नाम आ जाने के कारण मैंने काम खत्म होते ही सारी चिट्ठियां नष्ट कर देने की आदत बना ली थी । उसी वजह से मैंने डायरी भी नहीं लिखी । इसलिए मैं गांधीजी का आत्मीय निजी चित्रण नहीं कर सका ।
गांधीजी की जीवनी लिखने के वर्तमान प्रयास को कई हाथों का सहारा मिला है । उनमें से प्रमुख सुचेता हैं, जिन्होंने सामग्री जुटाने तथा उसके संकलन में मेरी सहायता की है । मुझे प्यारेलाल तथा प्रोफेसर के स्वामीनाथन से भी अमूल्य सहायता मिली है जिन्होंने अंतिम पाण्डुलिपि को पढ़कर सही किया । पूर्व निदेशक शिवशंकर दयाल ने 'कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी' से जुड़े श्री के. एन. वासवानी तथा श्री के. पी. गोस्वामी की सेवाएं भी मुझे सौंप रखी थीं । अंतिम पाण्डुलिपि तैयार करने में प्रकाशन विभाग के निदेशक श्री सी. एल. भारद्वाज तथा उसी विभाग के श्री आर.एम. भट्ट ने भी मेरी सहायता की ।पुस्तक का अंतिम कठिन भाग मेरे भतीजे गिरधारी की सहायता से पूर्ण किया गया । इन मित्रें ने सामग्री जुलने तथा उसे व्यवस्थित करने में मेरी सहायता के लिए अतिरिक्त समय भी दिया । मैं इन सभी का शुक्रगुजार हूं लेकिन पुस्तक में जताए गए मत मेरे अपने हैं । उनके लिए सिर्फ मुझे ही जिम्मेदार माना जाए । मैंने पुस्तक को दो भागों में बांटा है । एक में गांधीजी के जीवन की घटनाओं का विवरण है तथा दूसरा उनके विचारों पर आधारित है । मैंने अपने व्यक्तित्व को इस विवरण से अलग रखने का यथासंभव प्रयास किया है । जहां मैंने अपना जिक्र किया है वैसा मैंने ऐतिहासिक कारणों से किया है । मेरे द्वारा मेरे प्रिय मित्रें की आलोचना का भी वही कारण है । उन्होंने हमारे देश के यशस्वी स्वतंत्रता संग्राम में महान बलिदान तथा अप्रतिम योग्यता द्वारा महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । यह स्पष्ट रूप से समझा जाना चाहिए कि मेरे द्वारा आलोचना के बावजूद मेरे मन में उनके लिए गहन सराहना तथा सम्मान भी बरकरार है । मेरी मान्यता है कि आज गांधीजी को पूरी दुनिया में अनेक लोग महापुरुषों में शुमार करते हैं, जिनके विचार जहां तक नजर जाए समूची मानवता के लिए तथा सार्वकालिक हैं । उनकी हालांकि ये मान्यता थी कि ' सत्य एवं अहिंसा की अवधारणा उतनी ही पुरानी है जितनी यह दुनिया । ' इसके बावजूद जब कोई महापुरुष मानवता के सामने प्राचीन मूल्यों को पेश करता है तो उन्हें नया महत्व तथा अर्थ की नई गहराई प्रदान कर देता है । यीशु ने कहा था कि वे ''कानून को पुष्ट करने आए हैं न कि उसे नष्ट करने । ''लेकिन कानून का तभी सही ढंग से पालन हो सकता है जब उसके दायरे को नई परिस्थितियों के अनुरूप गहरा और विस्तृत किया जाए । मेरी मान्यता है कि गांधीजी का सही मायनों में वही योगदान है । उन्होंने नई परिस्थितियों के अनुरूप सत्य एवं अहिंसा को पुन:परिभाषित किया, जिसकी प्राचीन दुनिया में हल्की-फुल्की मिसाल ही मिलती है ।
क्या मैं पाठकों से वर्तमान लेखक के बारे में कुछ क्षमाशील होने का अनुरोध कर सकता हूं? गांधीजी के विचारों की उपयुक्त टीका की मेरी क्षमता एकदम सीमित है । मैंने शायद भारी भूलचूक भी की होगी, लेकिन मैं यह भरोसा दिलाता हूं, कि मैंने जो महसूस किया है वही लिखा है । मैंने घटनाएंजैसी घटी थीं अपनी जानकारी के अनुरूप उनका विवरण वैसे ही दिया है । मैंने नितांत निष्पक्ष रहने का प्रयास किया है । मैंने अपनी सुविधा केलिए जानबूझकर किसी तथ्य से छेड़छाड़ नहीं की है । ऐसा संभव है कि अनजाने में मेरी टिप्पणियों पर व्यक्तियों एवं घटनाओं के बारे में मेरे व्यक्तिगत मत अथवा पूर्वाग्रहों की छाप पड़ी हो । इसके बावजूद लेखक द्वारा इस आशंका से पूरी तरह नहीं बचा जा सकता, जब वह राजनीतिक घटनाओं के बारे में लिख तथा टिप्पणी कर रहा हो, क्योंकि ऐसी घटनाओं में व्यक्ति, दल तथा देश शामिल होते हैं । यह जोखिम हरेक टिप्पणीकार को उठाना पड़ता है । यदि इस मामले में मैंने कोई गलती की है तो मैं उसे सौभाग्य मानूंगा ।
भाषायी माध्यम के बिना घटनाओं के प्रत्यक्ष दर्शन करने वाले सिर्फ महान योगी और सिद्ध ही किसी विचार को सही रूप में समझ सकते हैं । अन्य लोग जो विचारों को शब्दों के माध्यम से समझते हैं, उनके लिए दुनिया तथा यथार्थ के बीच हमेशा ही अंतर रहेगा । उस अंतर को सिद्धों द्वारा कुछ निश्चित अनुशासनों द्वारा भरा जाता है जिनसे शब्दों को जिंदगी और रूप मिलता है। एक प्रसिद्ध सिंधी कवि ने सच ही कहा है 'शब्दों के मायाजाल में खोनेवालों को प्रेम की ऊंचाइयां कभी हासिल नहीं हो सकतीं ।' इसलिए यदि गांधीजी को ठीक से समझना है तो उनके द्वारा सुझाए गए रास्ते से की गई साधना के जरिए पुस्तक लिखी जानी आवश्यक है ।
विषय-सूची |
||
प्रस्तावना |
||
प्रथम खंड : जीवन |
||
1 |
आरंभिक जीवन |
3 |
2 |
दक्षिण अफ्रीका में संघर्ष |
12 |
3 |
चंपारण |
63 |
4 |
मजदूरों एवं किसानों के साथ |
95 |
5 |
जलियांवाला बाग नरसंहार |
98 |
6 |
असहयोग का आह्वान |
108 |
7 |
मुकदमा और कारावास |
115 |
8 |
''पराजित एवं अपमानित'' |
118 |
9 |
रचनात्मक कार्यक्रम का प्रचार |
121 |
10 |
साइमन कमीशन का बहिष्कार |
129 |
11 |
घटना प्रधान वर्ष |
133 |
12 |
पूर्ण स्वराज |
137 |
13 |
विदेशी कपड़े की होली |
141 |
14 |
नमक सत्याग्रह |
144 |
15 |
गाधी-इरविन समझौता |
157 |
16 |
आतंक का राज |
164 |
17 |
कम्यूनल अवार्ड |
174 |
18 |
हरिजन दौरा |
180 |
19 |
घायल बिहार में |
184 |
20 |
सत्याग्रह स्थगित |
187 |
21 |
ग्रामीण भारत का पुनरूत्थान |
192 |
22 |
प्रांतों में निर्वाचित सरकारें |
198 |
23 |
दुर्भाग्यपूर्ण घटना |
207 |
24 |
विस्मित और दु:खी |
212 |
25 |
राजकोट |
215 |
26 |
निजी सत्याग्रह आरंभ |
217 |
27 |
क्रिप्स मिशन |
224 |
28 |
भारत छोड़ो |
229 |
29 |
गतिरोध |
256 |
30 |
शिमला सम्मेलन |
262 |
31 |
कैबिनेट मिशन |
267 |
32 |
अंतरिम सरकार |
284 |
33 |
शांति मिशन पर |
294 |
34 |
बंटवारे की तैयारी |
319 |
35 |
मरहम लगाने का प्रयास |
339 |
36 |
संताप और कष्ट |
346 |
37 |
यात्रा का अंत |
351 |
द्वितीय खंड : दर्शन |
||
38 |
परिचय : गांधीवादी विचारधारा के प्रति समग्र नजरिया |
355 |
39 |
गांधीजी एवं धर्म |
394 |
40 |
सत्याग्रह का सिद्धांत |
405 |
41 |
राजनैतिक विचार |
423 |
42 |
आर्थिक विचार |
430 |
43 |
समाजिक सुधार : अस्पृश्यता |
449 |
44 |
गांधीजी और मुसलमान |
456 |
45 |
गांधीजी और महिलाएं |
461 |
46 |
नशाबंदी |
468 |
47 |
रचनात्मक कार्यक्रम के अन्य उपादान |
473 |
48 |
गांधीजी और संगठन |
477 |
49 |
गांधीजी और मार्क्स |
484 |
50 |
क्या गांधीजी आधुनिक थे? |
491 |
51 |
वैश्विक नागरिक गांधीजी |
499 |
परिशिष्ट (1-15) |
505 |
|
संदर्भ-सूची |
567 |
पुस्तक के विषय में
गांधीजी को पूरी दुनिया महात्मा के रूप में मानती है। उनके विचार समूची मानवता के लिए सार्वकालिक हैं। उनकी स्वयं की यह मान्यता थी कि 'सत्य और अहिंसा' की अवधारणा उतनी ही पुरानी है जितनी यह दुनिया। इसके बावजूद जब कोई महापुरुष मानवता के समक्ष प्राचीन मूल्यों को पेश करता है तो वह उन्हें अर्थ के नये आयाम और गरिमा प्रदान कर देता है।
इस पुस्तक में गांधीजी के जीवन, विचारों, कार्यों और घटना प्रसंगों का वर्णन कर उनकी महानता को दर्शाया गया है।
लेखक जे.बी. कृपलानी 'चंपारण आंदोलन' के समय से ही गांधीजी के सान्निध्य में रहे। उनकी इस निकटता के कारण हमें इस पुस्तक में गांधीजी के विचारों और जीवन दर्शन की विस्तृत प्रामाणिक जानकारी मिलती है।
प्रस्तावना
लगभग तीन वर्ष पूर्व प्रकाशन विभाग के तत्कालीन निदेशक श्री यू-एस. मोहन राव ने मुझे गांधीजी की संक्षिप्त जीवनी लिखने के लिए निमंत्रित किया । मुझे लगा कि वे मुझसे लगभग 60 पेज की पुस्तिका लिखवाना चाह रहे हैं । मैंने अनेक वर्ष पूर्व आकाशवाणी के लिए गांधीजी के जीवन की लघु कथा तैयार की थी, जिसका अधिकारीगण फारसी में प्रसारण के लिए अनुवाद कराना चाहते थे । उसी को संशोधित करके प्रकाशन विभाग को सौंप देने की उम्मीद करके मैंने उस बारे में सोचना बंद कर दिया । विभाग द्वारा लगभग 6 माह बाद मुझे मेरे वचन की याद दिलाए जाने पर मुझे पता लगा कि मुझसे कुछ अधिक विस्तृत कार्य की अपेक्षा की जा रही है । तब मेरे पास समय बहुत कम था । मुझे लगभग तीन माह की अवधि में लोकसभा के दो चुनाव लड़ने पड़े थे । मेरा भाग्य कुछ ऐसा था कि मैं सिर्फ उपचुनाव में ही जीतता था । चुनाव के बाद मैंने अपने द्वारा स्वीकृत कार्य शुरूकर दिया । अपनी सीमाओं के कारण मुझे यह कार्य बहुत भारी लगने लगा ।
गांधीजी के विलक्षण व्यक्तित्व, उनके विचारों, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय राजनैतिक गलतियों तथा अन्याय को दूर करने के लिए संघर्ष की उनकी नवीन तकनीक से न्याय करने वाली जीवनी लिखने के लिए किसी महान एवं सुलझे हुए लेखक की कलम की आवश्यकता थी । अभी तक मेरा सारा लेखन विवादास्पद रहा है, जिस पर राजनैतिक विवाद होते रहे हैं । गांधीजी द्वारा कांग्रेस तथा जनता को प्रदान किए गए नेतृत्व के अंतर्गत जैसे-जैसे मातृभूमि की आजादी का संघर्ष अधिक गंभीर तथा त्वरित होने लगा वैसे-वैसे यह प्रवृत्ति भी बढ़ने लगी । चंपारण (बिहार) में 1917 में गांधीजी के सत्याग्रह के दौरान उनके साथ आ जाने तथा उनके जीवन दर्शन एवं उनकी नई तकनीक कोसमझने के लिए तकलीफदेह प्रयास करने के कारण मैं बहुधा जहां तक संभव था वहां तक संविधान के लिए आदोलन चलाने के समर्थकों द्वारा उनकी निंदा के विरुद्ध गांधीजी के विचारों को सही ठहराने का प्रयास करता था । वह आदोलन तब चल रहा था जबकि भारत में ऐसा कोई लोकतांत्रिक संविधान नहीं था, जिसके माध्यम से सरकार बदली जा सकती । मुझे उन तथाकथित 'वैज्ञानिक' समाजवादियों के विरुद्ध भी उनके विचारों की ढाल बनकर खड़ा होना पड़ता था, जिनका मानना था कि भारत में स्वतंत्रता और समाजवाद को एकसाथ हासिल किया जा सकता है । मुझे निराशावादियों को रचनात्मक कार्यक्रम के महत्व तथा आरंभिक शिक्षा संबंधी गांधीजी की नई योजना के वैज्ञानिक पहलुओं को भी समझाना पड़ता था, लेकिन गांधीजी की सम्पूर्ण जीवनी लिखना मेरे बस की बात नहीं थी । उपलब्ध सामग्री इतनी सारी, बहुआयामी तथा बहुमूल्य थी कि उसमें से छांटना और छोड़ना कठिन था ।
इसके बावजूद मैंने इस पुस्तक में अपनी सम्पूर्ण क्षमता लगाई है । मुझे पता है कि अनेक महत्वपूर्ण घटनाओं का इसमें जिक्र नहीं हुआ होगा । मुझे जब यह बताया गया कि पुस्तक का प्रकाशन गांधीजी के जन्मशताब्दी समारोह के संबंध में किया जा रहा है और इसे अक्टूबर 1969 से पूर्व ही पूरा किया जाना आवश्यक था, तो मेरी परेशानी और बढ़ गई ।
यह सच है कि गांधीजी जब 1915 के आरंभ में अंतत: भारत आए तो उनसे मिलने वालों में देश के राजनैतिक जीवन तथा उसकी स्वतंत्रता में रुचि रखने वाले लोगों में से मैं पहला भले ही न हूं मगर लगभग पहला ही व्यक्ति था । यह उम्मीद रखना स्वाभाविक ही था कि उनसे तीस वर्ष से अधिक काल के जुड़ाव के क्रम में मैंने काफी सारी सामग्री इकट्ठा की होगी, जिसकी क् क्रमबद्ध प्रस्तुति करूंगा तथा उसमें पाठक दिलचस्पी लेंगे । लेकिन गांधीजी से मेरा संपर्क आम धारणा जितना आत्मीय नहीं था । चंपारण के बाद हालांकि मैं पांच वर्ष तक साबरमती आश्रम में उनके एकदम नजदीक रहता था, लेकिन मेरी उनसे बहुधा भेंट नहीं होती थी । तब मैं उनके शीर्ष शैक्षिक संस्थान गुजरात विद्यापीठ का आचार्य (प्रधानाचार्य) था । मैं जब उनसे मिला तो मैंने वैसा सिर्फ उनके स्वास्थ्य के बारे में पूछताछ के लिए किया । वे व्यस्त व्यक्ति थेऔर मेरे पास भी राष्ट्रीय शिक्षा योजना बनाने के महती कार्य के कारण समय नहीं होता था ।
मैं बहुधा उनकी यात्राओं में उनके साथ जाता था तथा उनमें से कुछ का प्रबंध भी करता था । इसके बावजूद उनके साथ मेरा संपर्क व्यक्तिगत की बजाय राजनैतिक अधिक था । मुझे अपनी निजी समस्याओं का दुखड़ा उनसे रोने की आदत नहीं थी । मैंने यह सीखा था कि जैसे वे अपनी समस्याएं स्वयं सुलझाते हैं, वैसे ही मुझे भी करना चाहिए । मैंने उनसे अन्य नेताओं विशेषकर जवाहरलाल की तरह कभी निजी बातचीत नहीं की । मैंने आश्रमवासियों तथा निकट संपर्क में आने वाले लोगों के साथ गांधीजी की फादर कंफेशर (लोगों की गलतियां सुननेवाले पादरी) की भूमिका निभाने की आदत को कभी बढ़ावा नहीं दिया । मुझे यह पता था कि उनमें से कुछ लोग अपनी वास्तविक अथवा काल्पनिक बुराइयों का इकबाल उनका विश्वास जीतने के लिए उनसे करते थे । सच तो यह था कि मुझे कोई निजी समस्या बहुधा होती ही नहीं थी । मैंने उनसे कभी लंबा पत्र-व्यवहार नहीं किया । मुझे जब भी कुछ पूछना होता था तो मैं उनके सचिव महादेव भाई को लिखकर भेज देता था । वे मेरे घनिष्ठ मित्र थे । गांधीजी से मैंने जिन मुट्ठी भर पत्रों का आदान-प्रदान किया था, उनकी भी प्रतिलिपियां मेरे पास नहीं हैं । एक बार क्रांतिकारियों के साथ नाम आ जाने के कारण मैंने काम खत्म होते ही सारी चिट्ठियां नष्ट कर देने की आदत बना ली थी । उसी वजह से मैंने डायरी भी नहीं लिखी । इसलिए मैं गांधीजी का आत्मीय निजी चित्रण नहीं कर सका ।
गांधीजी की जीवनी लिखने के वर्तमान प्रयास को कई हाथों का सहारा मिला है । उनमें से प्रमुख सुचेता हैं, जिन्होंने सामग्री जुटाने तथा उसके संकलन में मेरी सहायता की है । मुझे प्यारेलाल तथा प्रोफेसर के स्वामीनाथन से भी अमूल्य सहायता मिली है जिन्होंने अंतिम पाण्डुलिपि को पढ़कर सही किया । पूर्व निदेशक शिवशंकर दयाल ने 'कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी' से जुड़े श्री के. एन. वासवानी तथा श्री के. पी. गोस्वामी की सेवाएं भी मुझे सौंप रखी थीं । अंतिम पाण्डुलिपि तैयार करने में प्रकाशन विभाग के निदेशक श्री सी. एल. भारद्वाज तथा उसी विभाग के श्री आर.एम. भट्ट ने भी मेरी सहायता की ।पुस्तक का अंतिम कठिन भाग मेरे भतीजे गिरधारी की सहायता से पूर्ण किया गया । इन मित्रें ने सामग्री जुलने तथा उसे व्यवस्थित करने में मेरी सहायता के लिए अतिरिक्त समय भी दिया । मैं इन सभी का शुक्रगुजार हूं लेकिन पुस्तक में जताए गए मत मेरे अपने हैं । उनके लिए सिर्फ मुझे ही जिम्मेदार माना जाए । मैंने पुस्तक को दो भागों में बांटा है । एक में गांधीजी के जीवन की घटनाओं का विवरण है तथा दूसरा उनके विचारों पर आधारित है । मैंने अपने व्यक्तित्व को इस विवरण से अलग रखने का यथासंभव प्रयास किया है । जहां मैंने अपना जिक्र किया है वैसा मैंने ऐतिहासिक कारणों से किया है । मेरे द्वारा मेरे प्रिय मित्रें की आलोचना का भी वही कारण है । उन्होंने हमारे देश के यशस्वी स्वतंत्रता संग्राम में महान बलिदान तथा अप्रतिम योग्यता द्वारा महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । यह स्पष्ट रूप से समझा जाना चाहिए कि मेरे द्वारा आलोचना के बावजूद मेरे मन में उनके लिए गहन सराहना तथा सम्मान भी बरकरार है । मेरी मान्यता है कि आज गांधीजी को पूरी दुनिया में अनेक लोग महापुरुषों में शुमार करते हैं, जिनके विचार जहां तक नजर जाए समूची मानवता के लिए तथा सार्वकालिक हैं । उनकी हालांकि ये मान्यता थी कि ' सत्य एवं अहिंसा की अवधारणा उतनी ही पुरानी है जितनी यह दुनिया । ' इसके बावजूद जब कोई महापुरुष मानवता के सामने प्राचीन मूल्यों को पेश करता है तो उन्हें नया महत्व तथा अर्थ की नई गहराई प्रदान कर देता है । यीशु ने कहा था कि वे ''कानून को पुष्ट करने आए हैं न कि उसे नष्ट करने । ''लेकिन कानून का तभी सही ढंग से पालन हो सकता है जब उसके दायरे को नई परिस्थितियों के अनुरूप गहरा और विस्तृत किया जाए । मेरी मान्यता है कि गांधीजी का सही मायनों में वही योगदान है । उन्होंने नई परिस्थितियों के अनुरूप सत्य एवं अहिंसा को पुन:परिभाषित किया, जिसकी प्राचीन दुनिया में हल्की-फुल्की मिसाल ही मिलती है ।
क्या मैं पाठकों से वर्तमान लेखक के बारे में कुछ क्षमाशील होने का अनुरोध कर सकता हूं? गांधीजी के विचारों की उपयुक्त टीका की मेरी क्षमता एकदम सीमित है । मैंने शायद भारी भूलचूक भी की होगी, लेकिन मैं यह भरोसा दिलाता हूं, कि मैंने जो महसूस किया है वही लिखा है । मैंने घटनाएंजैसी घटी थीं अपनी जानकारी के अनुरूप उनका विवरण वैसे ही दिया है । मैंने नितांत निष्पक्ष रहने का प्रयास किया है । मैंने अपनी सुविधा केलिए जानबूझकर किसी तथ्य से छेड़छाड़ नहीं की है । ऐसा संभव है कि अनजाने में मेरी टिप्पणियों पर व्यक्तियों एवं घटनाओं के बारे में मेरे व्यक्तिगत मत अथवा पूर्वाग्रहों की छाप पड़ी हो । इसके बावजूद लेखक द्वारा इस आशंका से पूरी तरह नहीं बचा जा सकता, जब वह राजनीतिक घटनाओं के बारे में लिख तथा टिप्पणी कर रहा हो, क्योंकि ऐसी घटनाओं में व्यक्ति, दल तथा देश शामिल होते हैं । यह जोखिम हरेक टिप्पणीकार को उठाना पड़ता है । यदि इस मामले में मैंने कोई गलती की है तो मैं उसे सौभाग्य मानूंगा ।
भाषायी माध्यम के बिना घटनाओं के प्रत्यक्ष दर्शन करने वाले सिर्फ महान योगी और सिद्ध ही किसी विचार को सही रूप में समझ सकते हैं । अन्य लोग जो विचारों को शब्दों के माध्यम से समझते हैं, उनके लिए दुनिया तथा यथार्थ के बीच हमेशा ही अंतर रहेगा । उस अंतर को सिद्धों द्वारा कुछ निश्चित अनुशासनों द्वारा भरा जाता है जिनसे शब्दों को जिंदगी और रूप मिलता है। एक प्रसिद्ध सिंधी कवि ने सच ही कहा है 'शब्दों के मायाजाल में खोनेवालों को प्रेम की ऊंचाइयां कभी हासिल नहीं हो सकतीं ।' इसलिए यदि गांधीजी को ठीक से समझना है तो उनके द्वारा सुझाए गए रास्ते से की गई साधना के जरिए पुस्तक लिखी जानी आवश्यक है ।
विषय-सूची |
||
प्रस्तावना |
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प्रथम खंड : जीवन |
||
1 |
आरंभिक जीवन |
3 |
2 |
दक्षिण अफ्रीका में संघर्ष |
12 |
3 |
चंपारण |
63 |
4 |
मजदूरों एवं किसानों के साथ |
95 |
5 |
जलियांवाला बाग नरसंहार |
98 |
6 |
असहयोग का आह्वान |
108 |
7 |
मुकदमा और कारावास |
115 |
8 |
''पराजित एवं अपमानित'' |
118 |
9 |
रचनात्मक कार्यक्रम का प्रचार |
121 |
10 |
साइमन कमीशन का बहिष्कार |
129 |
11 |
घटना प्रधान वर्ष |
133 |
12 |
पूर्ण स्वराज |
137 |
13 |
विदेशी कपड़े की होली |
141 |
14 |
नमक सत्याग्रह |
144 |
15 |
गाधी-इरविन समझौता |
157 |
16 |
आतंक का राज |
164 |
17 |
कम्यूनल अवार्ड |
174 |
18 |
हरिजन दौरा |
180 |
19 |
घायल बिहार में |
184 |
20 |
सत्याग्रह स्थगित |
187 |
21 |
ग्रामीण भारत का पुनरूत्थान |
192 |
22 |
प्रांतों में निर्वाचित सरकारें |
198 |
23 |
दुर्भाग्यपूर्ण घटना |
207 |
24 |
विस्मित और दु:खी |
212 |
25 |
राजकोट |
215 |
26 |
निजी सत्याग्रह आरंभ |
217 |
27 |
क्रिप्स मिशन |
224 |
28 |
भारत छोड़ो |
229 |
29 |
गतिरोध |
256 |
30 |
शिमला सम्मेलन |
262 |
31 |
कैबिनेट मिशन |
267 |
32 |
अंतरिम सरकार |
284 |
33 |
शांति मिशन पर |
294 |
34 |
बंटवारे की तैयारी |
319 |
35 |
मरहम लगाने का प्रयास |
339 |
36 |
संताप और कष्ट |
346 |
37 |
यात्रा का अंत |
351 |
द्वितीय खंड : दर्शन |
||
38 |
परिचय : गांधीवादी विचारधारा के प्रति समग्र नजरिया |
355 |
39 |
गांधीजी एवं धर्म |
394 |
40 |
सत्याग्रह का सिद्धांत |
405 |
41 |
राजनैतिक विचार |
423 |
42 |
आर्थिक विचार |
430 |
43 |
समाजिक सुधार : अस्पृश्यता |
449 |
44 |
गांधीजी और मुसलमान |
456 |
45 |
गांधीजी और महिलाएं |
461 |
46 |
नशाबंदी |
468 |
47 |
रचनात्मक कार्यक्रम के अन्य उपादान |
473 |
48 |
गांधीजी और संगठन |
477 |
49 |
गांधीजी और मार्क्स |
484 |
50 |
क्या गांधीजी आधुनिक थे? |
491 |
51 |
वैश्विक नागरिक गांधीजी |
499 |
परिशिष्ट (1-15) |
505 |
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संदर्भ-सूची |
567 |