भूमिका
मानव का अस्तित्व पृथ्वी पर यद्यपि लाखों वर्षों से है, किन्तु उसके दिमाग की उड़ान का सबसे भव्य युग 5000-3000 ई० पू० है, जब कि उसने खेती, नहर, सौर पंचाग आदि-आदि कितने ही अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तथा समाज की कायापलट करने वाले आविष्कार किए । इस तरह की मानव मस्तिष्क की तीव्रता हम फिर 1760 ई० के बाद से पाते है, जब कि आधुनिक आविष्कारों का सिलसिला शुरू होता है । किन्तु दर्शन का अस्तित्व तो पहिले युग में था ही नहीं, और दूसरे युग में वह एक बूढ़ा बुजुर्ग है, जो अपने दिन बिता चुका है; बूढा होने से उसकी इज्जत की जाती जरूर है, किन्तु उसकी बात की ओर लोगों का ध्यान तभी खिंचता है, जब कि वह प्रयोगआश्रित चिन्तन-साइंस-का पल्ला पकड़ता है । यद्यपि इस बात को सर राधाकृष्णन् जैसे पुराने ढर्रे के ' 'धर्म-प्रचारक' ' मानने के लिए तैयार नहीं हैं, उनका कहना है
''प्राचीन भारत में दर्शन किसी भी दूसरी साइंस या कला का लग्गू-भग्गू न हे सदा एक स्वतंत्र स्थान रखता रहा है।''1 भारतीय दर्शन साइंस या कला का लग्गू-भग्गू न रहा हो, किन्तु धर्म का लग्गू-भग्गू तो वह सदा से चला आता है, और धर्म की गुलामी से बदतर गुलामी और क्या हो सकती है?
3000-2600 ई० पू० मानव-जाति के बौद्धिक जीवन के उत्कर्ष नहीं अपकर्ष का समय है; इन सदियों में मानव ने बहुत कम नए आविष्कार किए । पहिले की दो सहस्राब्दियों के कड़े मानसिक श्रम के बाद 1000-700 ई० पू० में, जान पड़ता' है, मानव-मस्तिष्क पूर्ण विश्राम लेना चाहता था, और इसी स्वप्नावस्था की उपज दर्शन हैं और इस तरह का प्रारंभ निश्चय ही हमारे दिल में उसकी इज्ज़त को बढ़ाता नहीं घटाता है । लेकिन, दर्शन का जो प्रभात है, वही उसका मध्याह नहीं है । दर्शन का सुवर्ण युग 700 ई० पू० से बाद की तीन और चार शताब्दियाँ हैं, इसी वक्त भारत में उपनिषद् से लेकर बुद्ध तक के, और यूरोप में थेल्स से लेकर अरस्तु तक के दर्शनों का निर्माण होता है । यह दोनों दर्शन-धाराएँ आपस में मिलकर विश्व की सारी दर्शन धाराओं का उद्गम बनती हैं- सिकन्दर के बाद किस तरह ये धाराएँ मिलती हैं, और कैसे दोनों धाराओं का प्रतिनिधि नव-अफलातूनी दर्शन रद्द प्रगति करता है, इसे पाठक आगे पढ़ेगे ।
दर्शन का यह सुवर्ण युग, यद्यपि प्रथम और अन्तिम आविष्कार युगों की समान नहीं कर सकता, किन्तु साथ ही यह मानव-मस्तिष्क की निद्रा का समय नहीं कहना चाहिए, इस समय का शक्तिशाली दर्शन अलग-थलग नहीं बल्कि बहुमुखीन प्रगति की उपज है । मानव समाज की प्रगति के बारे में हम अन्यत्र1 बत आए हैं, कि सभी देशों में इस प्रगति के एक साथ होने का कोई नियम नहीं हैं
600 ई० पू० वह वक्त है, जब कि मिश्र, मसोपोतामिया और सिन्धु-उपत्यका के पुर मानव अपनी आसमानी उड़ान के बाद थककर बैठ गए थे; लेकिन इसी वत नवागंतुकों के मिश्रण से उत्पन्न जातियाँ-हिन्दू और यूनानी- अपनी दिमागी उड़ा शुरू करती है । दर्शन क्षेत्र में यूनानी 600-300 ई० पू० तक आगे बढ़ते रहते हैं, किन्तु हिन्दू 400 ई० पू० के आसपास थककर बैठ जाते हैं । यूरोप में 300ई० पू० में ही अँधेरा छा जाता है, और 1600 ई० में 19 शताब्दियों के बाद नय प्रकाश(पुनर्जागरण) आने लगता है, यद्यपि इसमें शक नहीं इस लंबे काल की तीन शताब्दियों-600-1200 ई०- में दर्शन की मशाल बिल्कुल बुझती नहीं बल्कि इस्लामिक दार्शनिकों के हाथ में वह बड़े जोर से जलती रहती है, और पीछे उसी से आधुनिक यूरोप अपने दर्शन के प्रदीप को जलाने में सफल होता है । उधर दर्शन की भारतीय शाखा 400 ई० पू० की बाद की चार शताब्दियों में राख की ढ़ेर में चिंगारी बनी पड़ी रहती है । किन्तु ईसा की पहिली से छठी शताब्दी तक- विशेषकर पिछली तीन शताब्दियों में-वह अपना कमाल दिखलाती है । यह वह समय है, जब कि पश्चिम में दर्शन की अवस्था अस्तर रही है । नवीं से बारहवीं सदी तक भारतीय दर्शन इस्लामिक दर्शन का समकालीन ही नहीं समकक्ष रहता है, किन्तु उसके बाद वह ऐसी चिरसमाधि लेता है, कि आज तक भी उसकी समाधि खुली नहीं है । इस्लामिक दर्शन के अवसान के बाद यूरोपीय दर्शन की भी यही हालत हुई होती यदि उसने सोलहवीं सदी में2 धर्म से अपने को मुक्त न किया होता । सोलहवीं सदी यूरोप में स्कोलास्तिक-धर्मपोषक-दर्शन का अन्त करती है, किन्तु भारत मे एक के बाद स्कोलास्तिक दाकतर पैदा होते रहे हैं, और दर्शन की इस दासता को वह गर्व की बात समझते है । यह उनकी समझ में नहीं आता, कि साइंस और कला का सहयोगी बनने का मतलब .है, जीवित प्रकृति-प्रयोग-का जबर्दस्त आश्रय ग्रहणकर अपनी सृजनशक्ति को बढ़ाना; जो दर्शन उससे आजादी चाहता है, वह बुद्धि, जीवन और खुद आजादी से भी आजादी चाहता है ।
विश्वव्यापी दर्शन की धारा को देखने से मालूम होगा, कि वह राष्ट्रीय की अपेक्षा अन्तर्राष्ट्रीय ज्यादा है । दार्शनिक विचारों के ग्रहण करने में उसने कहीं ज्यादा उदारता दिखलाई, जितना कि धर्म ने एक दूसरे देश के धर्मो को स्वीकार करने में । यह कहना गलत होगा, कि दर्शन के विचारों के पीछे आर्थिक प्रश्नों का कोई लगाव नहीं था, तो भी धर्मों की अपेक्षा बहुत कम एक राष्ट्र के स्वार्थ को दूसरे पर लादना चाहता रहा; इसीलिए हम जितना गंगा आमू-दजला और नालंदा-बुखारा-बगदाद कार्दोवा का स्वतंत्र स्नेहपूर्ण समागम दर्शनों में पाते हैं, उतना साइंस के क्षेत्र से अलग कहीं नहीं पाते । हमें अफसोस है, समय और साधन के अभाव से हम चीन-जापान की दार्शनिक धारा को नहीं दे सके; किन्तु वैसा होने पर भी इस निष्कर्ष में तो कोई अन्तर, नहीं पड़ता कि दर्शन क्षेत्र में राष्ट्रीयता की तान छेड़ने वाला खुद धोखे में है और दूसरों को धोखे में डालना चाहता है ।
मैंने यहाँ दर्शन को विस्तृत भूगोल के मानचित्र पर एक पीढ़ी के बाद दूसरी पीढ़ी को सामने रखते हुए देखने की कोशिश की है, मैं इसमें कितना सफल हुआ हूँ इसे कहने का अधिकारी मैं नहीं हूँ । किन्तु मैं इतना जरूर समझता हूँ कि दर्शन के समझने का यही ठीक तरीका है, और मुझे अफसोस है कि अभी तक किसी भाषा में दर्शन को इस तरह अध्ययन करने का प्रयत्न नहीं किया गया है।- लेकिन इस तरीके की उपेक्षा ज्यादा समय तक नहीं की जा सकेगी, यह निश्चित पुस्तक लिखने में जिन ग्रंथों से मुझे सहायता मिली है, उनकी तथा उनके लेखकों की नामावली मैंने पुस्तक के अन्त में दे दी है । उनके ग्रंथों का मैं जितना ऋणी हूँ उससे कृतज्ञता-प्रकाशन द्वारा मैं अपने को उऋण नहीं समझता- और वस्तुत: ऐसे ऋण के उऋण होने का तो एक ही रास्ता है, कि हिन्दी में दर्शन पर ऐसी पुस्तकें निकलने लगें, 'दर्शन-दिगदर्शन' को कोई याद भी न करे । प्रत्येक ग्रंथकार को, मैं समझता हूँ अपने ग्रंथ के प्रति यही भाव रखना चाहिए ।- अमरता' बहुत भारी भ्रम के सिवा और कुछ नहीं है । पुस्तक लिखने में पुस्तकों तथा आवश्यक सामग्री सुलभ करने में भदन्त आनन्द कौसल्यायन और पंडित उदयनारायण तिवारी. एम० ए० साहित्यरत्न ने सहायता की है, शिष्टाचार के नाते ऐसे आत्मीयों को भी धन्यवाद देता हूँ ।
प्रकाशकीय
हिन्दी साहित्य में महापंडित राहुल सांकृत्यायन का नाम इतिहास-प्रसिद्ध और अमर विभूतियों में गिना जाता है । राहुल जी की जन्मतिथि 9 अप्रैल, 1893 और मृत्युतिथि 14 अप्रैल, 1963 है । राहुल जी का बचपन का नाम केदारनाथ पाण्डे था । बौद्ध दर्शन से इतना प्रभावित हुए कि स्वय बौद्ध हो गये ।'राहुल' नाम तो बाद मैं पड़ा-बौद्ध हो जाने के बाद । 'साकत्य' गोत्रीय होने के कारण उन्हें राहुल सास्मायन कहा जाने लगा ।
राहुल जी का समूचा जीवन घूमक्कड़ी का था । भिन्न-भिन्न भाषा साहित्य एव प्राचीन संस्कृत-पाली-प्राकृत-अपभ्रंश आदि भाषाओं का अनवरत अध्ययन-मनन करने का अपूर्व वैशिष्ट्य उनमें था । प्राचीन और नवीन साहित्य-दृष्टि की जितनी पकड और गहरी पैठ राहुल जी की थी-ऐसा योग कम ही देखने को मिलता है । घुमक्कड जीवन के मूल में अध्ययन की प्रवृत्ति ही सर्वोपरि रही । राहुल जी के साहित्यिक जीवन की शुरुआत सन् 1927 में होती है । वास्तविक्ता यह है कि जिस प्रकार उनके पाँव नही रुके, उसी प्रकार उनकी लेखनी भी निरन्तर चलती रही । विभिन्न विषयों पर उन्होने 150 से अधिक ग्रंथों का प्रणयन किया हैं । अब तक उनक 130 से भी अधिक ग्रंथ प्रकाशित हौ चुके है । लेखा, निबन्धों एव भाषणों की गणना एक मुश्किल काम है ।
राहुल जी के साहित्य के विविध पक्षी का देखने से ज्ञात होता है कि उनकी पैठ न केवल प्राचीन-नवीन भारतीय साहित्य में थी, अपितु तिब्बती, सिंहली, अग्रेजी, चीनी, रूसी, जापानी आदि भाषाओं की जानकारी करते हुए तत्तत् साहित्य को भी उन्होंने मथ डाला। राहुल जी जब जिसके सम्पर्क मे गये, उसकी पूरी जानकारी हासिल की । जब वे साम्यवाद के क्षेत्र में गये, तो कार्ल मार्क्स लेनिन, स्तालिन आदि के राजनातिक दर्शन की पूरी जानकारी प्राप्त की । यही कारण है कि उनके साहित्य में जनता, जनता का राज्य और मेहनतकश मजदूरों का स्वर प्रबल और प्रधान है।
राहुल जी बहुमुखी प्रतिभा-सम्पन्न विचारक हैं । धर्म, दर्शन, लोकसाहित्य, यात्रासाहित्य इतिहास, राजनीति, जीवनी, कोश, प्राचीन तालपोथियो का सम्पादन आदि विविध सत्रों मे स्तुत्य कार्य किया है। राहुल जी ने प्राचीन के खण्डहरों गे गणतंत्रीय प्रणाली की खोज की । सिंह सेनापति जैसी कुछ कृतियों मैं उनकी यह अन्वेषी वृत्ति देखी जा सकती है । उनकी रचनाओं मे प्राचीन के प्रति आस्था, इतिहास के प्रति गौरव और वर्तमान के प्रति सधी हुई दृष्टि का समन्वय देखने को मिलता है । यह केवल राहुल जी जिहोंने प्राचीन और वर्तमान भारतीय साहित्य-चिन्तन को समग्रत आत्मसात् कर हमे मौलिक दृष्टि देने का निरन्तर प्रयास किया है । चाहे साम्यवादी साहित्य हो या बौद्ध दर्शन, इतिहास-सम्मत उपन्यास हो या 'वोल्गा से गंगा की कहानियाँ-हर जगह राहुल जा की चिन्तक वृत्ति और अन्वेषी सूक्ष्म दृष्टि का प्रमाण गिनता जाता है । उनके उपन्यास और कहानियाँ बिलकुल एक नये दृष्टिकोण को हमारे सामने रखते हैं।
समग्रत: यह कहा जा सक्ता है कि राहुल जी न केवल हिन्दी साहित्य अपितु समूल भारतीय वाङमय के एक ऐसे महारथी है जिन्होंने प्राचीन और नवीन, पौर्वात्य एवं पाश्चात्य, दर्शन स्वं राजनीति और जीवन के उन अछूते तथ्यों पर प्रकाश डाला है जिन पर साधारणत: लोगों की दृष्टि नहीं गई थी । सर्वहारा के प्रति विशेष मोह होने के कारण अपनी साम्यवादी कृतियों में किसानों, मजदूरों और मेहनतकश लोगों की बराबर हिमायत करते दीखते है ।
विषय के अनुसार राहुल जी की भाषा- शैली अपना स्वरुप निधारित करती है । उन्होंने सामान्यत: सीधी-सादी सरल शैली का ही सहारा लिया है जिससे उनका सम्पूर्ण साहित्य विशेषकर कथा-साहित्य-साधारण पाठकों के लिए भी पठनीय और सुबोध है।
प्रस्तुत ग्रंथ 'दर्शन-दिग्दर्शन' में विश्व की सभी दर्शन-धाराएँ समाहित है । दर्शन के क्षेत्र में यूनानी दर्शन, इस्लामी दर्शन, यूरोपीय दर्शन और भारतीय दर्शन की प्रमुखता रही है और जितना गहन-गंभीर चिन्तन इनमें अनुस्यूत है, राहुल जी ने उसे इस पुस्तक में पूरी तरह समेटने का प्रयास किया है । यह ग्रंथ दर्शन-विषयक अन्य ग्रंथों से इस मायने में अलग है कि इसमें दर्शन को विस्तृत भौगोलिक फलक पर पीढ़ी दर पीढ़ी को सामने रखते हुए समझने की कोशिश की गयी है- अभी तक दर्शन के इतिहास में किसी भी भाषा में यह पद्धति नहीं अपनायी गयी थी । विश्व व्यापी दर्शन की धारा को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि वह राष्ट्रीय की अपेक्षा सार्वदेशिक अधिक है- यही कारण है कि सम्पूर्ण विश्व को दर्शन की भाषा में एक इकाई मानकर वैचारिक चिन्तन एव उसके विकास का ऐतिहासिक दिग्दर्शन कराया गया है । आशा है, प्रस्तुत ग्रंथ विद्वानों एवं जिज्ञासुओं में पूर्व की भाँति समादृत होगा।
भूमिका
मानव का अस्तित्व पृथ्वी पर यद्यपि लाखों वर्षों से है, किन्तु उसके दिमाग की उड़ान का सबसे भव्य युग 5000-3000 ई० पू० है, जब कि उसने खेती, नहर, सौर पंचाग आदि-आदि कितने ही अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तथा समाज की कायापलट करने वाले आविष्कार किए । इस तरह की मानव मस्तिष्क की तीव्रता हम फिर 1760 ई० के बाद से पाते है, जब कि आधुनिक आविष्कारों का सिलसिला शुरू होता है । किन्तु दर्शन का अस्तित्व तो पहिले युग में था ही नहीं, और दूसरे युग में वह एक बूढ़ा बुजुर्ग है, जो अपने दिन बिता चुका है; बूढा होने से उसकी इज्जत की जाती जरूर है, किन्तु उसकी बात की ओर लोगों का ध्यान तभी खिंचता है, जब कि वह प्रयोगआश्रित चिन्तन-साइंस-का पल्ला पकड़ता है । यद्यपि इस बात को सर राधाकृष्णन् जैसे पुराने ढर्रे के ' 'धर्म-प्रचारक' ' मानने के लिए तैयार नहीं हैं, उनका कहना है
''प्राचीन भारत में दर्शन किसी भी दूसरी साइंस या कला का लग्गू-भग्गू न हे सदा एक स्वतंत्र स्थान रखता रहा है।''1 भारतीय दर्शन साइंस या कला का लग्गू-भग्गू न रहा हो, किन्तु धर्म का लग्गू-भग्गू तो वह सदा से चला आता है, और धर्म की गुलामी से बदतर गुलामी और क्या हो सकती है?
3000-2600 ई० पू० मानव-जाति के बौद्धिक जीवन के उत्कर्ष नहीं अपकर्ष का समय है; इन सदियों में मानव ने बहुत कम नए आविष्कार किए । पहिले की दो सहस्राब्दियों के कड़े मानसिक श्रम के बाद 1000-700 ई० पू० में, जान पड़ता' है, मानव-मस्तिष्क पूर्ण विश्राम लेना चाहता था, और इसी स्वप्नावस्था की उपज दर्शन हैं और इस तरह का प्रारंभ निश्चय ही हमारे दिल में उसकी इज्ज़त को बढ़ाता नहीं घटाता है । लेकिन, दर्शन का जो प्रभात है, वही उसका मध्याह नहीं है । दर्शन का सुवर्ण युग 700 ई० पू० से बाद की तीन और चार शताब्दियाँ हैं, इसी वक्त भारत में उपनिषद् से लेकर बुद्ध तक के, और यूरोप में थेल्स से लेकर अरस्तु तक के दर्शनों का निर्माण होता है । यह दोनों दर्शन-धाराएँ आपस में मिलकर विश्व की सारी दर्शन धाराओं का उद्गम बनती हैं- सिकन्दर के बाद किस तरह ये धाराएँ मिलती हैं, और कैसे दोनों धाराओं का प्रतिनिधि नव-अफलातूनी दर्शन रद्द प्रगति करता है, इसे पाठक आगे पढ़ेगे ।
दर्शन का यह सुवर्ण युग, यद्यपि प्रथम और अन्तिम आविष्कार युगों की समान नहीं कर सकता, किन्तु साथ ही यह मानव-मस्तिष्क की निद्रा का समय नहीं कहना चाहिए, इस समय का शक्तिशाली दर्शन अलग-थलग नहीं बल्कि बहुमुखीन प्रगति की उपज है । मानव समाज की प्रगति के बारे में हम अन्यत्र1 बत आए हैं, कि सभी देशों में इस प्रगति के एक साथ होने का कोई नियम नहीं हैं
600 ई० पू० वह वक्त है, जब कि मिश्र, मसोपोतामिया और सिन्धु-उपत्यका के पुर मानव अपनी आसमानी उड़ान के बाद थककर बैठ गए थे; लेकिन इसी वत नवागंतुकों के मिश्रण से उत्पन्न जातियाँ-हिन्दू और यूनानी- अपनी दिमागी उड़ा शुरू करती है । दर्शन क्षेत्र में यूनानी 600-300 ई० पू० तक आगे बढ़ते रहते हैं, किन्तु हिन्दू 400 ई० पू० के आसपास थककर बैठ जाते हैं । यूरोप में 300ई० पू० में ही अँधेरा छा जाता है, और 1600 ई० में 19 शताब्दियों के बाद नय प्रकाश(पुनर्जागरण) आने लगता है, यद्यपि इसमें शक नहीं इस लंबे काल की तीन शताब्दियों-600-1200 ई०- में दर्शन की मशाल बिल्कुल बुझती नहीं बल्कि इस्लामिक दार्शनिकों के हाथ में वह बड़े जोर से जलती रहती है, और पीछे उसी से आधुनिक यूरोप अपने दर्शन के प्रदीप को जलाने में सफल होता है । उधर दर्शन की भारतीय शाखा 400 ई० पू० की बाद की चार शताब्दियों में राख की ढ़ेर में चिंगारी बनी पड़ी रहती है । किन्तु ईसा की पहिली से छठी शताब्दी तक- विशेषकर पिछली तीन शताब्दियों में-वह अपना कमाल दिखलाती है । यह वह समय है, जब कि पश्चिम में दर्शन की अवस्था अस्तर रही है । नवीं से बारहवीं सदी तक भारतीय दर्शन इस्लामिक दर्शन का समकालीन ही नहीं समकक्ष रहता है, किन्तु उसके बाद वह ऐसी चिरसमाधि लेता है, कि आज तक भी उसकी समाधि खुली नहीं है । इस्लामिक दर्शन के अवसान के बाद यूरोपीय दर्शन की भी यही हालत हुई होती यदि उसने सोलहवीं सदी में2 धर्म से अपने को मुक्त न किया होता । सोलहवीं सदी यूरोप में स्कोलास्तिक-धर्मपोषक-दर्शन का अन्त करती है, किन्तु भारत मे एक के बाद स्कोलास्तिक दाकतर पैदा होते रहे हैं, और दर्शन की इस दासता को वह गर्व की बात समझते है । यह उनकी समझ में नहीं आता, कि साइंस और कला का सहयोगी बनने का मतलब .है, जीवित प्रकृति-प्रयोग-का जबर्दस्त आश्रय ग्रहणकर अपनी सृजनशक्ति को बढ़ाना; जो दर्शन उससे आजादी चाहता है, वह बुद्धि, जीवन और खुद आजादी से भी आजादी चाहता है ।
विश्वव्यापी दर्शन की धारा को देखने से मालूम होगा, कि वह राष्ट्रीय की अपेक्षा अन्तर्राष्ट्रीय ज्यादा है । दार्शनिक विचारों के ग्रहण करने में उसने कहीं ज्यादा उदारता दिखलाई, जितना कि धर्म ने एक दूसरे देश के धर्मो को स्वीकार करने में । यह कहना गलत होगा, कि दर्शन के विचारों के पीछे आर्थिक प्रश्नों का कोई लगाव नहीं था, तो भी धर्मों की अपेक्षा बहुत कम एक राष्ट्र के स्वार्थ को दूसरे पर लादना चाहता रहा; इसीलिए हम जितना गंगा आमू-दजला और नालंदा-बुखारा-बगदाद कार्दोवा का स्वतंत्र स्नेहपूर्ण समागम दर्शनों में पाते हैं, उतना साइंस के क्षेत्र से अलग कहीं नहीं पाते । हमें अफसोस है, समय और साधन के अभाव से हम चीन-जापान की दार्शनिक धारा को नहीं दे सके; किन्तु वैसा होने पर भी इस निष्कर्ष में तो कोई अन्तर, नहीं पड़ता कि दर्शन क्षेत्र में राष्ट्रीयता की तान छेड़ने वाला खुद धोखे में है और दूसरों को धोखे में डालना चाहता है ।
मैंने यहाँ दर्शन को विस्तृत भूगोल के मानचित्र पर एक पीढ़ी के बाद दूसरी पीढ़ी को सामने रखते हुए देखने की कोशिश की है, मैं इसमें कितना सफल हुआ हूँ इसे कहने का अधिकारी मैं नहीं हूँ । किन्तु मैं इतना जरूर समझता हूँ कि दर्शन के समझने का यही ठीक तरीका है, और मुझे अफसोस है कि अभी तक किसी भाषा में दर्शन को इस तरह अध्ययन करने का प्रयत्न नहीं किया गया है।- लेकिन इस तरीके की उपेक्षा ज्यादा समय तक नहीं की जा सकेगी, यह निश्चित पुस्तक लिखने में जिन ग्रंथों से मुझे सहायता मिली है, उनकी तथा उनके लेखकों की नामावली मैंने पुस्तक के अन्त में दे दी है । उनके ग्रंथों का मैं जितना ऋणी हूँ उससे कृतज्ञता-प्रकाशन द्वारा मैं अपने को उऋण नहीं समझता- और वस्तुत: ऐसे ऋण के उऋण होने का तो एक ही रास्ता है, कि हिन्दी में दर्शन पर ऐसी पुस्तकें निकलने लगें, 'दर्शन-दिगदर्शन' को कोई याद भी न करे । प्रत्येक ग्रंथकार को, मैं समझता हूँ अपने ग्रंथ के प्रति यही भाव रखना चाहिए ।- अमरता' बहुत भारी भ्रम के सिवा और कुछ नहीं है । पुस्तक लिखने में पुस्तकों तथा आवश्यक सामग्री सुलभ करने में भदन्त आनन्द कौसल्यायन और पंडित उदयनारायण तिवारी. एम० ए० साहित्यरत्न ने सहायता की है, शिष्टाचार के नाते ऐसे आत्मीयों को भी धन्यवाद देता हूँ ।
प्रकाशकीय
हिन्दी साहित्य में महापंडित राहुल सांकृत्यायन का नाम इतिहास-प्रसिद्ध और अमर विभूतियों में गिना जाता है । राहुल जी की जन्मतिथि 9 अप्रैल, 1893 और मृत्युतिथि 14 अप्रैल, 1963 है । राहुल जी का बचपन का नाम केदारनाथ पाण्डे था । बौद्ध दर्शन से इतना प्रभावित हुए कि स्वय बौद्ध हो गये ।'राहुल' नाम तो बाद मैं पड़ा-बौद्ध हो जाने के बाद । 'साकत्य' गोत्रीय होने के कारण उन्हें राहुल सास्मायन कहा जाने लगा ।
राहुल जी का समूचा जीवन घूमक्कड़ी का था । भिन्न-भिन्न भाषा साहित्य एव प्राचीन संस्कृत-पाली-प्राकृत-अपभ्रंश आदि भाषाओं का अनवरत अध्ययन-मनन करने का अपूर्व वैशिष्ट्य उनमें था । प्राचीन और नवीन साहित्य-दृष्टि की जितनी पकड और गहरी पैठ राहुल जी की थी-ऐसा योग कम ही देखने को मिलता है । घुमक्कड जीवन के मूल में अध्ययन की प्रवृत्ति ही सर्वोपरि रही । राहुल जी के साहित्यिक जीवन की शुरुआत सन् 1927 में होती है । वास्तविक्ता यह है कि जिस प्रकार उनके पाँव नही रुके, उसी प्रकार उनकी लेखनी भी निरन्तर चलती रही । विभिन्न विषयों पर उन्होने 150 से अधिक ग्रंथों का प्रणयन किया हैं । अब तक उनक 130 से भी अधिक ग्रंथ प्रकाशित हौ चुके है । लेखा, निबन्धों एव भाषणों की गणना एक मुश्किल काम है ।
राहुल जी के साहित्य के विविध पक्षी का देखने से ज्ञात होता है कि उनकी पैठ न केवल प्राचीन-नवीन भारतीय साहित्य में थी, अपितु तिब्बती, सिंहली, अग्रेजी, चीनी, रूसी, जापानी आदि भाषाओं की जानकारी करते हुए तत्तत् साहित्य को भी उन्होंने मथ डाला। राहुल जी जब जिसके सम्पर्क मे गये, उसकी पूरी जानकारी हासिल की । जब वे साम्यवाद के क्षेत्र में गये, तो कार्ल मार्क्स लेनिन, स्तालिन आदि के राजनातिक दर्शन की पूरी जानकारी प्राप्त की । यही कारण है कि उनके साहित्य में जनता, जनता का राज्य और मेहनतकश मजदूरों का स्वर प्रबल और प्रधान है।
राहुल जी बहुमुखी प्रतिभा-सम्पन्न विचारक हैं । धर्म, दर्शन, लोकसाहित्य, यात्रासाहित्य इतिहास, राजनीति, जीवनी, कोश, प्राचीन तालपोथियो का सम्पादन आदि विविध सत्रों मे स्तुत्य कार्य किया है। राहुल जी ने प्राचीन के खण्डहरों गे गणतंत्रीय प्रणाली की खोज की । सिंह सेनापति जैसी कुछ कृतियों मैं उनकी यह अन्वेषी वृत्ति देखी जा सकती है । उनकी रचनाओं मे प्राचीन के प्रति आस्था, इतिहास के प्रति गौरव और वर्तमान के प्रति सधी हुई दृष्टि का समन्वय देखने को मिलता है । यह केवल राहुल जी जिहोंने प्राचीन और वर्तमान भारतीय साहित्य-चिन्तन को समग्रत आत्मसात् कर हमे मौलिक दृष्टि देने का निरन्तर प्रयास किया है । चाहे साम्यवादी साहित्य हो या बौद्ध दर्शन, इतिहास-सम्मत उपन्यास हो या 'वोल्गा से गंगा की कहानियाँ-हर जगह राहुल जा की चिन्तक वृत्ति और अन्वेषी सूक्ष्म दृष्टि का प्रमाण गिनता जाता है । उनके उपन्यास और कहानियाँ बिलकुल एक नये दृष्टिकोण को हमारे सामने रखते हैं।
समग्रत: यह कहा जा सक्ता है कि राहुल जी न केवल हिन्दी साहित्य अपितु समूल भारतीय वाङमय के एक ऐसे महारथी है जिन्होंने प्राचीन और नवीन, पौर्वात्य एवं पाश्चात्य, दर्शन स्वं राजनीति और जीवन के उन अछूते तथ्यों पर प्रकाश डाला है जिन पर साधारणत: लोगों की दृष्टि नहीं गई थी । सर्वहारा के प्रति विशेष मोह होने के कारण अपनी साम्यवादी कृतियों में किसानों, मजदूरों और मेहनतकश लोगों की बराबर हिमायत करते दीखते है ।
विषय के अनुसार राहुल जी की भाषा- शैली अपना स्वरुप निधारित करती है । उन्होंने सामान्यत: सीधी-सादी सरल शैली का ही सहारा लिया है जिससे उनका सम्पूर्ण साहित्य विशेषकर कथा-साहित्य-साधारण पाठकों के लिए भी पठनीय और सुबोध है।
प्रस्तुत ग्रंथ 'दर्शन-दिग्दर्शन' में विश्व की सभी दर्शन-धाराएँ समाहित है । दर्शन के क्षेत्र में यूनानी दर्शन, इस्लामी दर्शन, यूरोपीय दर्शन और भारतीय दर्शन की प्रमुखता रही है और जितना गहन-गंभीर चिन्तन इनमें अनुस्यूत है, राहुल जी ने उसे इस पुस्तक में पूरी तरह समेटने का प्रयास किया है । यह ग्रंथ दर्शन-विषयक अन्य ग्रंथों से इस मायने में अलग है कि इसमें दर्शन को विस्तृत भौगोलिक फलक पर पीढ़ी दर पीढ़ी को सामने रखते हुए समझने की कोशिश की गयी है- अभी तक दर्शन के इतिहास में किसी भी भाषा में यह पद्धति नहीं अपनायी गयी थी । विश्व व्यापी दर्शन की धारा को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि वह राष्ट्रीय की अपेक्षा सार्वदेशिक अधिक है- यही कारण है कि सम्पूर्ण विश्व को दर्शन की भाषा में एक इकाई मानकर वैचारिक चिन्तन एव उसके विकास का ऐतिहासिक दिग्दर्शन कराया गया है । आशा है, प्रस्तुत ग्रंथ विद्वानों एवं जिज्ञासुओं में पूर्व की भाँति समादृत होगा।