ईशावास्य (प्रवचन)
संस्कृत वाङ्मयमें उपनिषद् शब्दका अर्थ ग्रन्थ विशेष नहीं, विद्या विशेष है। 'ब्रह्माविद्या' ही उपनिषद् है। विद्याका उदय हृदयमें होता है। जिस विषय की विद्या उदय होती है।, उस विषयकी अविद्या को निवृत्त कर देती है। 'ईशावास्य' इत्यादि अष्टादश मन्त्रसमूह शुक्ल यजुर्वेदान्तर्गत माध्यन्दिनी शाखाके चालीसवें अध्यायके रूपमें है। प्रथम मन्त्रके अनुसार ही उपनिषद्का नामकरण हुआ है। इसमें ब्रह्मज्ञान तथा उसके उपयोगी साधनों, बहिरग्ङ, अन्तरंग-दोनों का स्पष्ट निरूपण हुआ है। मन्त्रसंहिता होने के कारण यह उपनिषद् सर्वमान्य है। यदि इसपर लिखे गये भाष्य, टीका-टिप्पणियोंको छोड़ भी दिया जाय तो भी मूल मन्त्रसंहिता का स्वाध्याय करनेसे यह स्पष्ट हो जाता है कि मूल मन्त्रोंमें तत्त्वसम्बन्धी सिद्धान्तकी क्या रूपरेखा निश्चित की गयी है।
ईशावास्य (प्रवचन)
संस्कृत वाङ्मयमें उपनिषद् शब्दका अर्थ ग्रन्थ विशेष नहीं, विद्या विशेष है। 'ब्रह्माविद्या' ही उपनिषद् है। विद्याका उदय हृदयमें होता है। जिस विषय की विद्या उदय होती है।, उस विषयकी अविद्या को निवृत्त कर देती है। 'ईशावास्य' इत्यादि अष्टादश मन्त्रसमूह शुक्ल यजुर्वेदान्तर्गत माध्यन्दिनी शाखाके चालीसवें अध्यायके रूपमें है। प्रथम मन्त्रके अनुसार ही उपनिषद्का नामकरण हुआ है। इसमें ब्रह्मज्ञान तथा उसके उपयोगी साधनों, बहिरग्ङ, अन्तरंग-दोनों का स्पष्ट निरूपण हुआ है। मन्त्रसंहिता होने के कारण यह उपनिषद् सर्वमान्य है। यदि इसपर लिखे गये भाष्य, टीका-टिप्पणियोंको छोड़ भी दिया जाय तो भी मूल मन्त्रसंहिता का स्वाध्याय करनेसे यह स्पष्ट हो जाता है कि मूल मन्त्रोंमें तत्त्वसम्बन्धी सिद्धान्तकी क्या रूपरेखा निश्चित की गयी है।