अलातशान्ति-प्रकरणका क्या अभिप्राय है?
एक लकड़ी में एक ओर या दोनों ओर मशाल की तरह, घास-फूस बाँध करके या कपड़ा बाँध करके, किरासन का तेल डाल करके आग जला देते हैं और उस लकड़ी को बीच में-से पकड़कर घुमाते हैं तो कभी वह लम्बी मालूम पड़े-गोल मालूम पड़े, कभी चौड़ी मालूम पड़े उसको घुमाने से तरह-तरहकी शक्ल मालूम पड़े। यद्यपि उस 'लूक' में, उस 'अलाव' में किसी प्रकारकी आकृति नहीं है-न लम्बी, न चौड़ी, न गोल, न उसमें हाथी है, न उसमें घोड़ा है, न उसमें रथ है, परन्तु उसको ऐसा घुमाते हैं कि उसमें सब आकृतियाँ मालूम पड़ती हैं। इसी प्रकार वह ज्ञानदेव ऐसी-ऐसी आकृतियाँ बनाते हैं कि उन आकृतियों की शान्ति, उन आकृतियों के बाधके लिए अलातशान्ति प्रकरण प्रारम्भ करते हैं।
अलातशान्ति-प्रकरणका क्या अभिप्राय है?
एक लकड़ी में एक ओर या दोनों ओर मशाल की तरह, घास-फूस बाँध करके या कपड़ा बाँध करके, किरासन का तेल डाल करके आग जला देते हैं और उस लकड़ी को बीच में-से पकड़कर घुमाते हैं तो कभी वह लम्बी मालूम पड़े-गोल मालूम पड़े, कभी चौड़ी मालूम पड़े उसको घुमाने से तरह-तरहकी शक्ल मालूम पड़े। यद्यपि उस 'लूक' में, उस 'अलाव' में किसी प्रकारकी आकृति नहीं है-न लम्बी, न चौड़ी, न गोल, न उसमें हाथी है, न उसमें घोड़ा है, न उसमें रथ है, परन्तु उसको ऐसा घुमाते हैं कि उसमें सब आकृतियाँ मालूम पड़ती हैं। इसी प्रकार वह ज्ञानदेव ऐसी-ऐसी आकृतियाँ बनाते हैं कि उन आकृतियों की शान्ति, उन आकृतियों के बाधके लिए अलातशान्ति प्रकरण प्रारम्भ करते हैं।