पुस्तक परिचय
विश्व की विभिन्न संस्कृतियों द्वारा प्रतिपादित ध्यान की प्राचीन पद्धतियों पर यह एक व्यावहारिक एवं ज्ञानवर्द्धक पुस्तक है । इसमें स्वामी सत्यानन्द सरस्वती ने आध्यात्मिक जिज्ञासुओं के लिए अपने स्रोत तक वापस जाने का सुगम तथा सुनिश्चित मार्ग प्रशस्त किया है । साथ ही इस परिवर्तनशील विश्व में अपने मानसिक संतुलन को बनाये रखने एवं परम लक्ष्य की प्राप्ति हेतु ध्यान और उसमें आने वाली बाधाओं का समाधान प्रस्तुत किया है । इसमें पुरातन काल की ध्यान की विभिन्न पद्धतियों के सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक पक्षों का समावेश किया गया है । अन्तर्मौन, योग निद्रा और अजपाजप आदि के साथ साथ प्राचीन मिश्र और यूनान, तिब्बती और जेन बौद्ध धर्म, ताओ और सूफी धर्म, ईसाई और पारसी धर्म तथा कीमियागिरी द्वारा अपनायी गई ध्यान की पद्धतियों का विस्तृत वर्णन है । गतिशील ध्यान और बच्चों के लिए ध्यान की पद्धतियों का भी उल्लेख है ।
ईश्वर दर्शन हर स्तर के प्रारम्भिक एवं उच्च साधकों के लिए उपयुक्त पुस्तक है और योग शिक्षकों के लिए आदर्श मार्गदर्शिका है ।
लेखक परिचय
स्वामी सत्यानन्द सरस्वती का जन्म उत्तर प्रदेश के अल्मोड़ा ग्राम में 1923 में हुआ । 1943 में उन्हें ऋषिकेश में अपने गुरु स्वामी शिवानन्द के दर्शन हुए । 1947 में गुरु ने उन्हें परमहंस संन्याय में दीक्षित किया । 1956 में उन्होंने परिव्राजक संन्यासी के रूप में भ्रमण करने के लिए शिवानन्द आश्रम छोड़ दिया । तत्पश्चात् 1956 में ही उन्होंने अन्तरराष्ट्रीय योग मित्र मण्डल एवं 1963 मे बिहार योग विद्यालय की स्थापना की । अगले 20 वर्षों तक वे योग के अग्रणी प्रवक्ता के रूप में विश्व भ्रमण करते रहे । अस्सी से अधिक ग्रन्यों के प्रणेता स्वामीजी ने ग्राम्य विकास की भावना से 1984 में दातव्य संस्था शिवानन्द मठ की एवं योग पर वैज्ञानिक शोध की दृष्टि से योग शोध संस्थान की स्थापना की । 1988 में अपने मिशन से अवकाश ले, क्षेत्र संन्यास अपनाकर सार्वभौम दृष्टि से परमहंस संन्यासी का जीवन अपना लिया है ।
ध्यान की प्रस्तावना
वर्तमान मशीनी क्रांति के परिप्रेक्ष्य में अनेक वर्षो पूर्व मनोवैज्ञा निकों ने यह भविष्यवाणी की थी कि आगामी वर्षों में मानवता को बहुविध मानसिक समस्याओं का सामना करना होगा । हम देखते हैं कि उनकी यह भविष्यवाणी आज एकदम सच साबित हो रही है । समूचे विश्व के लोग अत्यधिक तनाव ग्रस्त व परेशानी का जीवन जी रहे हैं । मानसिक शान्ति उनसे कोसों दूर है ।
इतिहास के किसी भी काल में मनुष्य के पास इतना अधिक समय नहीं था जितना मशीनों के कारण आज उसके पास है । परन्तु विडम्बनातो यहहै कि आज का मनुष्य यह नहींजानता कि वह इस खाली समय का किस तरह सदुपयोग करे । स्वयं को भूलने के लिए वह समय का उपयोग रोमांचक आमोद प्रमोद में करता है । परन्तु जैसे जैसे समय गुजरता है, उसकी मानसिक समस्यायें घटने के बजाय बढ़ती जाती हैं । आर्थिक, शारीरिक एवं पारिवारिक समस्यायें दुख, घृणा,ईर्ष्या तथा भय आदि उसे निरंतर बेचैन बनाये रखते हैं । अर्वाचीन सम्यता ने सुख सुविधा एवं मनोरंजन के अनेक साधन मनुष्य की सेवा में उपलब्ध किये हैं, परन्तु खेद है कि मनुष्य इन सुख सुविधाओं का उपभोग करने में अपने को असमर्थ महसूस कर रहा है । उसका मन अशान्त, बेचैन, बीमार तथा तनाव ग्रस्त है । इस कारण जीवन के प्रति एक ठोस, स्वस्थ तथा संतुलित दृष्टिकोण का उसमें अभाव दिखता है ।
भारतीय इतिहास में एक युग ऐसा भी आया था जब मनुष्य के सामने इसी तरह का संकट उपस्थित हुआ था । उस काल का मनुष्य शिक्षा तथा सम्पन्नता के शिखर पर पहुंच चुका था । वह लगभगउसी स्थिति में जी रहा था जिसमें आधुनिक मनुष्य जी रहा है । उस युग में जिस अनुपात में उसकी आर्थिक सम्पन्नता बढ़ रही थी, उसी अनुपात में मानसिक तनाव भी बढ़ रहे थे । महर्षि कपिल ने तात्कालिक परिस्थिति को देखा तथा समझा, फिर सांख्य दर्शन का प्रतिपादन किया । इसमें उनका उद्देश्य पीड़ित तथा भ्रान्त मानवता को सुख एवं शान्ति प्रदान करना था । तत्पश्चात् महात्मा बुद्ध के समय में महर्षि पातंजलि ने सांख्य दर्शन को समय की आवश्यकता के अनुकूल परिवर्तित कर योगसूत्रों के रूप में प्रस्तुत किया । इन सूत्रों में योग को चित्तवृत्तियों के निरोधक के रूप में प्रस्तुत किया गया । महर्षि कपिल तथा पातंजलि के समय की परिस्थितियों में जमीन आसमान का अन्तर था, तथापि? मानव मन आज भी उतना ही अपरिवर्तित है जितना उनके समय में था । योग तथा ध्यान की पद्धतियों का विकास इसी संदर्भ में अनेक शताब्दियों पूर्व किया गया । परन्तु ये तकनीकें आज के उथल पुथल युक्त जीवन के लिए भी उतनी ही महत्वपूर्ण तथा उपादेय हैं, जितनी तब थीं ।
इसे दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि पूर्वी देश का मनुष्य अपने आन्तरिक जीवन के प्रति जितना सजग तथा चिन्तित है उतना ही वह अपने बाह्य जीवन के प्रति निश्चिन्त और असजग है । फलस्वरूप उसके आन्तरिक और बाह्य जीवन में सामंजस्य का अभाव स्पष्ट दिखलाई पड़ता है । उसका जीवन उतना ही अशान्त तथा शोचनीय है जितना पश्चिम के मानव का । यह बात तर्कसंगत लगती है कि जो स्वयं अपने ही साथ सामंजस्य स्थापित नहीं कर सकता, वह दूसरों के साथ कैसे प्रेम, मित्रता, एकता, मधुरता तथा सौहार्द्रतापूर्वक जीवन यापन कर सकता है ।
पश्चिम के लोगों के मन में यह बात जमकर बैठी है कि भौतिक सुख ही सब कुछ है, क्योकि बिना भौतिक सम्पन्नता के सुखी मनुष्य की कल्पना ही अधूरी है । परिणामस्वरूप वहाँ तनाव, बेचैनी तथा पागलपन आम बात हो गयी है । परन्तु यदि हम विश्व के उन महान् संतों और धर्म संस्थापकों के जीवन पर दृष्टिपात् करें तो इस बात का प्रमाण मिलेगा कि भौतिक सुख सुविधाओं तथा सम्पन्नता के अभाव में भी जीवन शान्त, संतुलित तथा सुखी हो सकता है ।अत ऐसा लगता है कि भले ही मनुष्य सम्पन्न अथवा विपन्न अवस्था में रहे, वैज्ञानिक दृष्टि से विकसित अथवा अविकसित समाज में रहे, सुसंस्कृत अथवा जंगली व असभ्य सामाजिक परिस्थितियों में रहे उसे हमेशा जीवन में किसी वस्तु का अभाव खटकता ही रहता है । अतएव यह तर्कसंगत है कि वह कोई ऐसी युक्ति खोजे जिससे एक साथ उसके भीतर तथा बाहर परिवर्तन आये । इसके लिए उसे न तो अपने आंतरिक अथवा बाह्य जीवन की उपेक्षा करने की आवश्यकता है और न अपने सामाजिक अथवा पारिवारिक दायित्वों से मुख मोड़ने या गिरि कंदराओं में पलायन करने की ही आवश्यकता है । इसी प्रकार यदि वह अपने आंतरिक जीवन को अस्वीकृत करे तथा अपने सामाजिक, आर्थिक अथवा राजनैतिक ढांचे को बदलने का प्रयास करे तो उसकी सफलता की संभावना अत्यल्प होगी । अपने आंतरिक मूल्यों पर समाज को बदलने के प्रयत्न का फल असंतुलन को जन्म देना है, इससे बचा नहीं जा सकता ।
सामाजिक ढांचे तथा जीवन मूल्यों को बदलने की दिशा में अनेक प्रयत्न किये गये, परन्तु उनके परिणाम हमेशा संदिग्ध रहे । यही कारण है कि लोग आज भी ऐसे नेता या पथ प्रदर्शक की प्रतीक्षा में रत हैं जो उन्हें उचित दिशानिर्देश प्रदान कर सके । मगर आश्चर्य तो यह है कि हर मनुष्य उनकी प्रतीक्षा में है परन्तु स्वयं को उनसे अलग रखे हुए है ।
इस बहुआयामी समस्या का निराकरण है ध्यान । ध्यान के अभ्यास से हम यह अनुभव करते हैं कि हमारी निराशा, दुख तथा असफलताओं का कारण बाह्य भौतिक संसार नहीं है अपितु इसका मूल कारण आंतरिक है । एक बार हम यह जान लें तो अपने बाह्य वातावरण को सुधारने में शक्ति का अपव्यय बद कर अपनी दृष्टि को भीतर की ओर मोड़ लेंगे । तब हमें अपनी इन सभी समस्याओं के निराकरण की कुंजी मिल जायेगी ।
अपने आंतरिक जीवन के साथ सामंजस्य स्थापित करना ही ध्यान है । ध्यान द्वारा चेतना का विकास, इन्द्रियों का अतिक्रमण तथा ज्ञान और प्रकाश स्वरूप अपने मूल स्रोत से सारूप्य स्थापित होता है।ध्यान स्वयं को भूलने अथवा पलायन की प्रक्रिया नहीं है । वह अंधकारअथवा शून्य में जाने की भी प्रक्रिया नहीं है । ध्यान स्वयं की खोज है । महर्षि पातंजलि के अनुसार ध्यान वह अवस्था है जिसमें मन वस्तुपरक तथा विषयपरक अनुभूतियों से ऊपर उठ जाता है । तभी ध्यान का उदय होता है ।
जब आप मन के भीतर उठने वाली कल्पनाओं तथा बिम्बों से मार्गच्युत नहीं होते, जब बाहरी ध्वनियां आपके मन को विचलित नहीं करतीं, जब इन्द्रियां तथा उनके विषय आपको परेशान नहीं करते तो आप ध्यान की अवस्था में होते हैं । भले ही आपको यह अवस्था गहन निद्रा जैसी लगे, परन्तु यह अनुपम है । इस अवस्था में ध्याता जीवनी तथा प्राण शक्ति से परिपूर्ण व आंतरिक रूप से सचेत रहता है परन्तु उसकी चेतना भौतिक संसार से दूर किसी बिन्दु पर केन्द्रित होती है । उसका मन पूर्णरूपेण नियंत्रित तथा एक बिन्दु पर सहज रूप से केन्द्रित रहता है । उस अवस्था में वह अपनी सामान्य मानसिक सीमाओं का अतिक्रमण कर चुका होता है । उसकी अपनी एकाग्रता के लक्ष्य से एकरूपता स्थापित हो जाती है ।
यह जरूरी नहीं है कि आपको इस उच्च अवस्था का अनुभव ध्यान की प्रारम्भिक अवस्था में ही हो । हमने यहां ध्यान की जिस उच्च अवस्था का वर्णन किया है उस तक पहुँचने के लिए दीर्घकाल तक नियमित अभ्यास तथा एकाग्रता आवश्यक है । हो सकता है कि इस अवस्था तक पहुँचने के लिए आपको महीनों अथवा वर्षों तक साधना करनी पड़े, परन्तु यह निश्चित मानिये कि यदि आप निष्ठा, लगन एवं नियमित रूप से अभ्यास जारी रखें तो एक दिन आप अवश्य अनुभूति के शिखर तक पहुंचने में कामयाब होंगे ।
अपनी इस ध्यान यात्रा कै दौरान आपको अनेक आश्चर्यजनक बातें सीखने को मिलेंगी । आप अपनी चेतना तथा व्यक्तित्व के विकास का अनुभव करेंगे । जैसे जैसे आपके आंतरिक व्यक्तित्व की परतें खुलती जायेगी, आप अपनी शक्ति तथा क्षमताओं को उत्तरोत्तर विकसित होते देखेंगे । आपका जीवन प्रेरणा से भर उठेगा तथा आप अधिक उत्साह एवं आशावादिता के साथ बाह्य जीवन के कार्यकलापों में सक्रिय हो सकेंगे । अनेक लोग इस मिथ्या भय के कारण ध्यान से कतराते हैं कि वे अन्तर्मुखी हो अपनी सामाजिक, पारिवारिक जिम्मेदारियों से उदासीनहो जायेंगे । परन्तु यदि आप अपने क्रियाकलापों को संतुलित रखें, अपने अन्तर्बाह्य जीवन में संतुलन स्थापित कर सकें तो पायेंगे कि ध्यान आपके जीवन के दोनों पक्षों को संतुलित करता है । ध्यानावस्था में आंतरिक शान्ति, संतुलन तथा ध्येय बिन्दु से एकरूपता आपको न केवल मानसिक रूप से स्वस्थ तथा तरोताजा बनायेगी अपितु अतिरिक्त शक्ति भी प्रदान करेगी जिससे आप अधिक सफलतापूर्वक बाह्य जिम्मेदारियों को निभायेंगे ।
ध्यान शरीर में उस गहन विश्राम अवस्था का निर्माण करता है जिसमें शरीर के विभिन्न अवयवों की मरम्मत तथा सुधार की क्रिया संपादित होती है । निद्रावस्था में हमारे मन को समुचित विश्राम नहीं मिलता क्योंकि उसकी शक्ति स्वप्न देखने में व्यय होती रहती है । जब ध्यानावस्था में मन पूर्णरूपेण एकाग्र होता है तभी उसे पूरा विश्राम मिलता है । जब आप ध्यान की इस अवस्था को पा लें तब माल तीन चार घंटों की निद्रा से ही आपको पर्याप्त विश्राम मिल सकता है ।
ध्यान के नियमित अभ्यास दारा शरीर की मरम्मत तथा सुधार की प्रक्रिया तेज तथा क्षय की प्रक्रिया मंद हो सकती है । ध्यान के क्षेत्र में अन्वेषकों का मत है कि अनेक शारीरिक क्रियायें एकाग्रता द्वारा नियंत्रित की जा सकती हैं । अतएव अनेक मानसिक तथा मनोकायिक व्याधियों के सफल उपचार में ध्यानाभ्यास मानवता की महान् सेवा कर सकता है ।
भौतिक लाभों के अतिरिक्त ध्यान द्वारा आप अपनी अनेक व्यवहारजन्य त्रुटियों से छुटकारा पा सकते हैं । इससे स्वयं तथा बाह्य वातावरण के प्रति मानसिक ग्राह्यता बढ़ती है । फलस्वरूप आप ज्ञान तथा अध्ययन के किसी भी क्षेत्र में दत्तचित्त हो सकते हैं । ध्यान की अवस्था में मस्तिष्क की ओर प्राण शक्ति का अतिरिक्त प्रवाह होता है जिससे मानसिक क्षमताओं में आश्चर्यजनक सुधार होता है । इससे स्मरणशक्ति, मेधाशक्ति तथा विषय को समझने की क्षमता विकसित होती है । बस, यही कारण है कि अनेक विद्यार्थी, प्राध्यापक तथा विशेषज्ञ योग तथा ध्यान की ओर आकर्षित होते हैं ।
हम सभी अच्छी तरह जानते हैं कि हमारे मस्तिष्क का ९० प्रतिशत भाग अछूता ही पड़ा रहता है । हम उसका उपयोग ही नहींकरते । हमारे मस्तिष्क के इस प्रसुप्त खंड में अनेक मानसिक क्षमताएं जैसे दूरश्रवण, विचार सम्प्रेषण आदि भरी पड़ी हैं । आप ध्यान के अभ्यास द्वारा मस्तिष्क कै इन अछूते अनभिव्यक्त क्षेत्रों को झकझोर कर सक्रिय बना सकते हैं । याद रखिये, मानव मन की क्षमताओं की कोई सीमा नहीं होती । बस, आवश्यकता इस बात की है कि ध्यान के नियमित अभ्यास द्वारा अपने व्यष्टि मन का सम्पर्क समष्टि मन से स्थापित करा दिया जाये ।
अधिकांश लोगों का अनुभव बताता है कि ध्यान के नियमित अभ्यास द्वारा वे स्वास्थ्य तथा प्रसन्नता अनुभव करते हैं । उनके विचारों में अधिक स्पष्टता, चित्त में शान्ति, विश्राम तथा सजगता देखने को मिलती है तथा इन्हें सृजनात्मक अमिव्यक्ति, प्रेरणा एवं अपने भीतर अतिरिक्त शक्ति का अनुभव होता है । इन सबके अलावा ध्यान का अभ्यासी अपने शरीर, मन तथा मस्तिष्क का वांछित दिशा में आवश्यकतानुसार प्रयोग कर सकता है ।
यही कारण है कि विश्व के हर देश के लोग ध्यान में अधिकाधिक रुचि ले रहे हैं । ध्यान के प्रभावों के क्षेत्र में अनेक वैज्ञानिक तथा मनोवैज्ञानिक अन्वेषण में लगे हैं । चिकित्सकों तथा मनश्चिकित्सकों को ध्यान द्वारा रोगों की चिकित्सा के क्षेत्र में प्रयोगों तथा अन्वेषणों के कल्पनातीत निष्कर्ष प्राप्त हो रहे हैं । वे स्वयं भी अपने ऊपर ध्यान का प्रयोग कर रहे हैं । ध्यान तथा बायोफीड बैक के प्रयोग दिन प्रतिदिन चिकित्सा विज्ञान में आरोग्य के नये आयाम उद्घाटित कर रहे हैं ।
अनुक्रमानिका |
|
ध्यान की प्रस्तावना |
1 |
प्रथम खण्ड ध्यान के उपकरण |
|
ध्यान के उपकरण मंत्र |
15 |
माला |
20 |
प्रतीक |
27 |
इष्ट देवता |
33 |
यंत्र तथा मण्डल |
39 |
द्वितीय खण्ड ध्यान के यांत्रिक साधन |
44 |
ध्यान के यांत्रिक उपकरण |
49 |
रासायनिक द्रव्य ध्यान के साधन अथवा बाधक |
53 |
बायोफीडबैक |
64 |
इंद्रियानुभव हरण करने वाले कुण्ड |
72 |
जीवन लय |
77 |
तृतीय खण्ड ध्यान की यौगिक पद्धति |
|
ध्यान की यौगिक पद्धति |
83 |
ध्यान के क्रमिक चरण |
91 |
सजगता का विकास |
98 |
अन्तमौंन |
107 |
जप |
116 |
अजपा जप |
122 |
चिदाकाश धारणा |
129 |
योगनिद्रा |
135 |
प्राण विद्या |
145 |
त्राटक |
157 |
नादयोग |
164 |
ज्ञानयोग |
171 |
क्रियायोग |
180 |
चक्रानुसंधान तथा ध्यान |
184 |
यौन तांत्रिक ध्यान |
208 |
चतुर्थ खण्ड ध्यान एक विश्वव्यापी संस्कृति |
|
ध्यान एक विश्वव्यापी संस्कृति |
223 |
प्राचीन विश्व में ध्यान |
227 |
हिन्दु धर्म |
259 |
जैन धर्म |
269 |
ताओ धर्म |
275 |
बौद्ध धर्म |
286 |
दक्षिणी बौद्ध मत |
291 |
तिब्बती बौद्धधर्म |
301 |
जेन बौद्ध धर्म |
308 |
ईसाई धर्म |
317 |
पारसी धर्म |
326 |
सूफी धर्म |
331 |
अमेरिकन इण्डियन मत |
344 |
कीमियागरी पाश्चात्य तांत्रिक परम्परा |
350 |
सम्मोहन |
366 |
स्वप्रेरित चिकित्सा |
373 |
भावातीत ध्यान |
379 |
पंचम खण्ड गतिशील ध्यान |
|
गतिशील ध्यान |
385 |
योग में चल ध्यान |
391 |
यात्रा के दौरान चल ध्यान |
395 |
तिब्बती बौद्ध धर्म में गतिशील ध्यान |
400 |
जेन समुदाय में गतिशील ध्यान |
405 |
कराटे में गतिशील ध्यान |
408 |
नृत्य में चल ध्यान |
411 |
कीड़ा में चल (क्रियाशील) ध्यान |
420 |
षष्ठम् खण्ड ध्यान की पूरक तकनीकें |
|
प्रकृति ध्यान |
427 |
रंग तथा प्रकाश पर ध्यान |
434 |
बच्चों के लिए ध्यान |
440 |
मृत्यु सम्बन्धी ध्यान |
461 |
सप्तम् खण्ड ध्यान का लक्ष्य |
|
समाधि |
477 |
पुस्तक परिचय
विश्व की विभिन्न संस्कृतियों द्वारा प्रतिपादित ध्यान की प्राचीन पद्धतियों पर यह एक व्यावहारिक एवं ज्ञानवर्द्धक पुस्तक है । इसमें स्वामी सत्यानन्द सरस्वती ने आध्यात्मिक जिज्ञासुओं के लिए अपने स्रोत तक वापस जाने का सुगम तथा सुनिश्चित मार्ग प्रशस्त किया है । साथ ही इस परिवर्तनशील विश्व में अपने मानसिक संतुलन को बनाये रखने एवं परम लक्ष्य की प्राप्ति हेतु ध्यान और उसमें आने वाली बाधाओं का समाधान प्रस्तुत किया है । इसमें पुरातन काल की ध्यान की विभिन्न पद्धतियों के सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक पक्षों का समावेश किया गया है । अन्तर्मौन, योग निद्रा और अजपाजप आदि के साथ साथ प्राचीन मिश्र और यूनान, तिब्बती और जेन बौद्ध धर्म, ताओ और सूफी धर्म, ईसाई और पारसी धर्म तथा कीमियागिरी द्वारा अपनायी गई ध्यान की पद्धतियों का विस्तृत वर्णन है । गतिशील ध्यान और बच्चों के लिए ध्यान की पद्धतियों का भी उल्लेख है ।
ईश्वर दर्शन हर स्तर के प्रारम्भिक एवं उच्च साधकों के लिए उपयुक्त पुस्तक है और योग शिक्षकों के लिए आदर्श मार्गदर्शिका है ।
लेखक परिचय
स्वामी सत्यानन्द सरस्वती का जन्म उत्तर प्रदेश के अल्मोड़ा ग्राम में 1923 में हुआ । 1943 में उन्हें ऋषिकेश में अपने गुरु स्वामी शिवानन्द के दर्शन हुए । 1947 में गुरु ने उन्हें परमहंस संन्याय में दीक्षित किया । 1956 में उन्होंने परिव्राजक संन्यासी के रूप में भ्रमण करने के लिए शिवानन्द आश्रम छोड़ दिया । तत्पश्चात् 1956 में ही उन्होंने अन्तरराष्ट्रीय योग मित्र मण्डल एवं 1963 मे बिहार योग विद्यालय की स्थापना की । अगले 20 वर्षों तक वे योग के अग्रणी प्रवक्ता के रूप में विश्व भ्रमण करते रहे । अस्सी से अधिक ग्रन्यों के प्रणेता स्वामीजी ने ग्राम्य विकास की भावना से 1984 में दातव्य संस्था शिवानन्द मठ की एवं योग पर वैज्ञानिक शोध की दृष्टि से योग शोध संस्थान की स्थापना की । 1988 में अपने मिशन से अवकाश ले, क्षेत्र संन्यास अपनाकर सार्वभौम दृष्टि से परमहंस संन्यासी का जीवन अपना लिया है ।
ध्यान की प्रस्तावना
वर्तमान मशीनी क्रांति के परिप्रेक्ष्य में अनेक वर्षो पूर्व मनोवैज्ञा निकों ने यह भविष्यवाणी की थी कि आगामी वर्षों में मानवता को बहुविध मानसिक समस्याओं का सामना करना होगा । हम देखते हैं कि उनकी यह भविष्यवाणी आज एकदम सच साबित हो रही है । समूचे विश्व के लोग अत्यधिक तनाव ग्रस्त व परेशानी का जीवन जी रहे हैं । मानसिक शान्ति उनसे कोसों दूर है ।
इतिहास के किसी भी काल में मनुष्य के पास इतना अधिक समय नहीं था जितना मशीनों के कारण आज उसके पास है । परन्तु विडम्बनातो यहहै कि आज का मनुष्य यह नहींजानता कि वह इस खाली समय का किस तरह सदुपयोग करे । स्वयं को भूलने के लिए वह समय का उपयोग रोमांचक आमोद प्रमोद में करता है । परन्तु जैसे जैसे समय गुजरता है, उसकी मानसिक समस्यायें घटने के बजाय बढ़ती जाती हैं । आर्थिक, शारीरिक एवं पारिवारिक समस्यायें दुख, घृणा,ईर्ष्या तथा भय आदि उसे निरंतर बेचैन बनाये रखते हैं । अर्वाचीन सम्यता ने सुख सुविधा एवं मनोरंजन के अनेक साधन मनुष्य की सेवा में उपलब्ध किये हैं, परन्तु खेद है कि मनुष्य इन सुख सुविधाओं का उपभोग करने में अपने को असमर्थ महसूस कर रहा है । उसका मन अशान्त, बेचैन, बीमार तथा तनाव ग्रस्त है । इस कारण जीवन के प्रति एक ठोस, स्वस्थ तथा संतुलित दृष्टिकोण का उसमें अभाव दिखता है ।
भारतीय इतिहास में एक युग ऐसा भी आया था जब मनुष्य के सामने इसी तरह का संकट उपस्थित हुआ था । उस काल का मनुष्य शिक्षा तथा सम्पन्नता के शिखर पर पहुंच चुका था । वह लगभगउसी स्थिति में जी रहा था जिसमें आधुनिक मनुष्य जी रहा है । उस युग में जिस अनुपात में उसकी आर्थिक सम्पन्नता बढ़ रही थी, उसी अनुपात में मानसिक तनाव भी बढ़ रहे थे । महर्षि कपिल ने तात्कालिक परिस्थिति को देखा तथा समझा, फिर सांख्य दर्शन का प्रतिपादन किया । इसमें उनका उद्देश्य पीड़ित तथा भ्रान्त मानवता को सुख एवं शान्ति प्रदान करना था । तत्पश्चात् महात्मा बुद्ध के समय में महर्षि पातंजलि ने सांख्य दर्शन को समय की आवश्यकता के अनुकूल परिवर्तित कर योगसूत्रों के रूप में प्रस्तुत किया । इन सूत्रों में योग को चित्तवृत्तियों के निरोधक के रूप में प्रस्तुत किया गया । महर्षि कपिल तथा पातंजलि के समय की परिस्थितियों में जमीन आसमान का अन्तर था, तथापि? मानव मन आज भी उतना ही अपरिवर्तित है जितना उनके समय में था । योग तथा ध्यान की पद्धतियों का विकास इसी संदर्भ में अनेक शताब्दियों पूर्व किया गया । परन्तु ये तकनीकें आज के उथल पुथल युक्त जीवन के लिए भी उतनी ही महत्वपूर्ण तथा उपादेय हैं, जितनी तब थीं ।
इसे दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि पूर्वी देश का मनुष्य अपने आन्तरिक जीवन के प्रति जितना सजग तथा चिन्तित है उतना ही वह अपने बाह्य जीवन के प्रति निश्चिन्त और असजग है । फलस्वरूप उसके आन्तरिक और बाह्य जीवन में सामंजस्य का अभाव स्पष्ट दिखलाई पड़ता है । उसका जीवन उतना ही अशान्त तथा शोचनीय है जितना पश्चिम के मानव का । यह बात तर्कसंगत लगती है कि जो स्वयं अपने ही साथ सामंजस्य स्थापित नहीं कर सकता, वह दूसरों के साथ कैसे प्रेम, मित्रता, एकता, मधुरता तथा सौहार्द्रतापूर्वक जीवन यापन कर सकता है ।
पश्चिम के लोगों के मन में यह बात जमकर बैठी है कि भौतिक सुख ही सब कुछ है, क्योकि बिना भौतिक सम्पन्नता के सुखी मनुष्य की कल्पना ही अधूरी है । परिणामस्वरूप वहाँ तनाव, बेचैनी तथा पागलपन आम बात हो गयी है । परन्तु यदि हम विश्व के उन महान् संतों और धर्म संस्थापकों के जीवन पर दृष्टिपात् करें तो इस बात का प्रमाण मिलेगा कि भौतिक सुख सुविधाओं तथा सम्पन्नता के अभाव में भी जीवन शान्त, संतुलित तथा सुखी हो सकता है ।अत ऐसा लगता है कि भले ही मनुष्य सम्पन्न अथवा विपन्न अवस्था में रहे, वैज्ञानिक दृष्टि से विकसित अथवा अविकसित समाज में रहे, सुसंस्कृत अथवा जंगली व असभ्य सामाजिक परिस्थितियों में रहे उसे हमेशा जीवन में किसी वस्तु का अभाव खटकता ही रहता है । अतएव यह तर्कसंगत है कि वह कोई ऐसी युक्ति खोजे जिससे एक साथ उसके भीतर तथा बाहर परिवर्तन आये । इसके लिए उसे न तो अपने आंतरिक अथवा बाह्य जीवन की उपेक्षा करने की आवश्यकता है और न अपने सामाजिक अथवा पारिवारिक दायित्वों से मुख मोड़ने या गिरि कंदराओं में पलायन करने की ही आवश्यकता है । इसी प्रकार यदि वह अपने आंतरिक जीवन को अस्वीकृत करे तथा अपने सामाजिक, आर्थिक अथवा राजनैतिक ढांचे को बदलने का प्रयास करे तो उसकी सफलता की संभावना अत्यल्प होगी । अपने आंतरिक मूल्यों पर समाज को बदलने के प्रयत्न का फल असंतुलन को जन्म देना है, इससे बचा नहीं जा सकता ।
सामाजिक ढांचे तथा जीवन मूल्यों को बदलने की दिशा में अनेक प्रयत्न किये गये, परन्तु उनके परिणाम हमेशा संदिग्ध रहे । यही कारण है कि लोग आज भी ऐसे नेता या पथ प्रदर्शक की प्रतीक्षा में रत हैं जो उन्हें उचित दिशानिर्देश प्रदान कर सके । मगर आश्चर्य तो यह है कि हर मनुष्य उनकी प्रतीक्षा में है परन्तु स्वयं को उनसे अलग रखे हुए है ।
इस बहुआयामी समस्या का निराकरण है ध्यान । ध्यान के अभ्यास से हम यह अनुभव करते हैं कि हमारी निराशा, दुख तथा असफलताओं का कारण बाह्य भौतिक संसार नहीं है अपितु इसका मूल कारण आंतरिक है । एक बार हम यह जान लें तो अपने बाह्य वातावरण को सुधारने में शक्ति का अपव्यय बद कर अपनी दृष्टि को भीतर की ओर मोड़ लेंगे । तब हमें अपनी इन सभी समस्याओं के निराकरण की कुंजी मिल जायेगी ।
अपने आंतरिक जीवन के साथ सामंजस्य स्थापित करना ही ध्यान है । ध्यान द्वारा चेतना का विकास, इन्द्रियों का अतिक्रमण तथा ज्ञान और प्रकाश स्वरूप अपने मूल स्रोत से सारूप्य स्थापित होता है।ध्यान स्वयं को भूलने अथवा पलायन की प्रक्रिया नहीं है । वह अंधकारअथवा शून्य में जाने की भी प्रक्रिया नहीं है । ध्यान स्वयं की खोज है । महर्षि पातंजलि के अनुसार ध्यान वह अवस्था है जिसमें मन वस्तुपरक तथा विषयपरक अनुभूतियों से ऊपर उठ जाता है । तभी ध्यान का उदय होता है ।
जब आप मन के भीतर उठने वाली कल्पनाओं तथा बिम्बों से मार्गच्युत नहीं होते, जब बाहरी ध्वनियां आपके मन को विचलित नहीं करतीं, जब इन्द्रियां तथा उनके विषय आपको परेशान नहीं करते तो आप ध्यान की अवस्था में होते हैं । भले ही आपको यह अवस्था गहन निद्रा जैसी लगे, परन्तु यह अनुपम है । इस अवस्था में ध्याता जीवनी तथा प्राण शक्ति से परिपूर्ण व आंतरिक रूप से सचेत रहता है परन्तु उसकी चेतना भौतिक संसार से दूर किसी बिन्दु पर केन्द्रित होती है । उसका मन पूर्णरूपेण नियंत्रित तथा एक बिन्दु पर सहज रूप से केन्द्रित रहता है । उस अवस्था में वह अपनी सामान्य मानसिक सीमाओं का अतिक्रमण कर चुका होता है । उसकी अपनी एकाग्रता के लक्ष्य से एकरूपता स्थापित हो जाती है ।
यह जरूरी नहीं है कि आपको इस उच्च अवस्था का अनुभव ध्यान की प्रारम्भिक अवस्था में ही हो । हमने यहां ध्यान की जिस उच्च अवस्था का वर्णन किया है उस तक पहुँचने के लिए दीर्घकाल तक नियमित अभ्यास तथा एकाग्रता आवश्यक है । हो सकता है कि इस अवस्था तक पहुँचने के लिए आपको महीनों अथवा वर्षों तक साधना करनी पड़े, परन्तु यह निश्चित मानिये कि यदि आप निष्ठा, लगन एवं नियमित रूप से अभ्यास जारी रखें तो एक दिन आप अवश्य अनुभूति के शिखर तक पहुंचने में कामयाब होंगे ।
अपनी इस ध्यान यात्रा कै दौरान आपको अनेक आश्चर्यजनक बातें सीखने को मिलेंगी । आप अपनी चेतना तथा व्यक्तित्व के विकास का अनुभव करेंगे । जैसे जैसे आपके आंतरिक व्यक्तित्व की परतें खुलती जायेगी, आप अपनी शक्ति तथा क्षमताओं को उत्तरोत्तर विकसित होते देखेंगे । आपका जीवन प्रेरणा से भर उठेगा तथा आप अधिक उत्साह एवं आशावादिता के साथ बाह्य जीवन के कार्यकलापों में सक्रिय हो सकेंगे । अनेक लोग इस मिथ्या भय के कारण ध्यान से कतराते हैं कि वे अन्तर्मुखी हो अपनी सामाजिक, पारिवारिक जिम्मेदारियों से उदासीनहो जायेंगे । परन्तु यदि आप अपने क्रियाकलापों को संतुलित रखें, अपने अन्तर्बाह्य जीवन में संतुलन स्थापित कर सकें तो पायेंगे कि ध्यान आपके जीवन के दोनों पक्षों को संतुलित करता है । ध्यानावस्था में आंतरिक शान्ति, संतुलन तथा ध्येय बिन्दु से एकरूपता आपको न केवल मानसिक रूप से स्वस्थ तथा तरोताजा बनायेगी अपितु अतिरिक्त शक्ति भी प्रदान करेगी जिससे आप अधिक सफलतापूर्वक बाह्य जिम्मेदारियों को निभायेंगे ।
ध्यान शरीर में उस गहन विश्राम अवस्था का निर्माण करता है जिसमें शरीर के विभिन्न अवयवों की मरम्मत तथा सुधार की क्रिया संपादित होती है । निद्रावस्था में हमारे मन को समुचित विश्राम नहीं मिलता क्योंकि उसकी शक्ति स्वप्न देखने में व्यय होती रहती है । जब ध्यानावस्था में मन पूर्णरूपेण एकाग्र होता है तभी उसे पूरा विश्राम मिलता है । जब आप ध्यान की इस अवस्था को पा लें तब माल तीन चार घंटों की निद्रा से ही आपको पर्याप्त विश्राम मिल सकता है ।
ध्यान के नियमित अभ्यास दारा शरीर की मरम्मत तथा सुधार की प्रक्रिया तेज तथा क्षय की प्रक्रिया मंद हो सकती है । ध्यान के क्षेत्र में अन्वेषकों का मत है कि अनेक शारीरिक क्रियायें एकाग्रता द्वारा नियंत्रित की जा सकती हैं । अतएव अनेक मानसिक तथा मनोकायिक व्याधियों के सफल उपचार में ध्यानाभ्यास मानवता की महान् सेवा कर सकता है ।
भौतिक लाभों के अतिरिक्त ध्यान द्वारा आप अपनी अनेक व्यवहारजन्य त्रुटियों से छुटकारा पा सकते हैं । इससे स्वयं तथा बाह्य वातावरण के प्रति मानसिक ग्राह्यता बढ़ती है । फलस्वरूप आप ज्ञान तथा अध्ययन के किसी भी क्षेत्र में दत्तचित्त हो सकते हैं । ध्यान की अवस्था में मस्तिष्क की ओर प्राण शक्ति का अतिरिक्त प्रवाह होता है जिससे मानसिक क्षमताओं में आश्चर्यजनक सुधार होता है । इससे स्मरणशक्ति, मेधाशक्ति तथा विषय को समझने की क्षमता विकसित होती है । बस, यही कारण है कि अनेक विद्यार्थी, प्राध्यापक तथा विशेषज्ञ योग तथा ध्यान की ओर आकर्षित होते हैं ।
हम सभी अच्छी तरह जानते हैं कि हमारे मस्तिष्क का ९० प्रतिशत भाग अछूता ही पड़ा रहता है । हम उसका उपयोग ही नहींकरते । हमारे मस्तिष्क के इस प्रसुप्त खंड में अनेक मानसिक क्षमताएं जैसे दूरश्रवण, विचार सम्प्रेषण आदि भरी पड़ी हैं । आप ध्यान के अभ्यास द्वारा मस्तिष्क कै इन अछूते अनभिव्यक्त क्षेत्रों को झकझोर कर सक्रिय बना सकते हैं । याद रखिये, मानव मन की क्षमताओं की कोई सीमा नहीं होती । बस, आवश्यकता इस बात की है कि ध्यान के नियमित अभ्यास द्वारा अपने व्यष्टि मन का सम्पर्क समष्टि मन से स्थापित करा दिया जाये ।
अधिकांश लोगों का अनुभव बताता है कि ध्यान के नियमित अभ्यास द्वारा वे स्वास्थ्य तथा प्रसन्नता अनुभव करते हैं । उनके विचारों में अधिक स्पष्टता, चित्त में शान्ति, विश्राम तथा सजगता देखने को मिलती है तथा इन्हें सृजनात्मक अमिव्यक्ति, प्रेरणा एवं अपने भीतर अतिरिक्त शक्ति का अनुभव होता है । इन सबके अलावा ध्यान का अभ्यासी अपने शरीर, मन तथा मस्तिष्क का वांछित दिशा में आवश्यकतानुसार प्रयोग कर सकता है ।
यही कारण है कि विश्व के हर देश के लोग ध्यान में अधिकाधिक रुचि ले रहे हैं । ध्यान के प्रभावों के क्षेत्र में अनेक वैज्ञानिक तथा मनोवैज्ञानिक अन्वेषण में लगे हैं । चिकित्सकों तथा मनश्चिकित्सकों को ध्यान द्वारा रोगों की चिकित्सा के क्षेत्र में प्रयोगों तथा अन्वेषणों के कल्पनातीत निष्कर्ष प्राप्त हो रहे हैं । वे स्वयं भी अपने ऊपर ध्यान का प्रयोग कर रहे हैं । ध्यान तथा बायोफीड बैक के प्रयोग दिन प्रतिदिन चिकित्सा विज्ञान में आरोग्य के नये आयाम उद्घाटित कर रहे हैं ।
अनुक्रमानिका |
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ध्यान की प्रस्तावना |
1 |
प्रथम खण्ड ध्यान के उपकरण |
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ध्यान के उपकरण मंत्र |
15 |
माला |
20 |
प्रतीक |
27 |
इष्ट देवता |
33 |
यंत्र तथा मण्डल |
39 |
द्वितीय खण्ड ध्यान के यांत्रिक साधन |
44 |
ध्यान के यांत्रिक उपकरण |
49 |
रासायनिक द्रव्य ध्यान के साधन अथवा बाधक |
53 |
बायोफीडबैक |
64 |
इंद्रियानुभव हरण करने वाले कुण्ड |
72 |
जीवन लय |
77 |
तृतीय खण्ड ध्यान की यौगिक पद्धति |
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ध्यान की यौगिक पद्धति |
83 |
ध्यान के क्रमिक चरण |
91 |
सजगता का विकास |
98 |
अन्तमौंन |
107 |
जप |
116 |
अजपा जप |
122 |
चिदाकाश धारणा |
129 |
योगनिद्रा |
135 |
प्राण विद्या |
145 |
त्राटक |
157 |
नादयोग |
164 |
ज्ञानयोग |
171 |
क्रियायोग |
180 |
चक्रानुसंधान तथा ध्यान |
184 |
यौन तांत्रिक ध्यान |
208 |
चतुर्थ खण्ड ध्यान एक विश्वव्यापी संस्कृति |
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ध्यान एक विश्वव्यापी संस्कृति |
223 |
प्राचीन विश्व में ध्यान |
227 |
हिन्दु धर्म |
259 |
जैन धर्म |
269 |
ताओ धर्म |
275 |
बौद्ध धर्म |
286 |
दक्षिणी बौद्ध मत |
291 |
तिब्बती बौद्धधर्म |
301 |
जेन बौद्ध धर्म |
308 |
ईसाई धर्म |
317 |
पारसी धर्म |
326 |
सूफी धर्म |
331 |
अमेरिकन इण्डियन मत |
344 |
कीमियागरी पाश्चात्य तांत्रिक परम्परा |
350 |
सम्मोहन |
366 |
स्वप्रेरित चिकित्सा |
373 |
भावातीत ध्यान |
379 |
पंचम खण्ड गतिशील ध्यान |
|
गतिशील ध्यान |
385 |
योग में चल ध्यान |
391 |
यात्रा के दौरान चल ध्यान |
395 |
तिब्बती बौद्ध धर्म में गतिशील ध्यान |
400 |
जेन समुदाय में गतिशील ध्यान |
405 |
कराटे में गतिशील ध्यान |
408 |
नृत्य में चल ध्यान |
411 |
कीड़ा में चल (क्रियाशील) ध्यान |
420 |
षष्ठम् खण्ड ध्यान की पूरक तकनीकें |
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प्रकृति ध्यान |
427 |
रंग तथा प्रकाश पर ध्यान |
434 |
बच्चों के लिए ध्यान |
440 |
मृत्यु सम्बन्धी ध्यान |
461 |
सप्तम् खण्ड ध्यान का लक्ष्य |
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समाधि |
477 |