लेखक
परिचय
जन्म 25 सितम्बर, । 954, शिमला
के निकट गांव मान्दल
(घूंड) में। एम. ए. (संस्कृत
व हिन्दी), साहित्याचार्य, हिमाचल प्रदेश
विश्वविद्यालय।
पी एच डी (समकालीन हिन्दी
कविता) गुरुनानकदेव
विश्विद्यालय
अमृतसर।
कूछ वर्षो तक अध्यापन
के बाद 1979 से
हिमाचल प्रदेश
के भाषा एवं सस्कृति
विभाग मे संपादन
एवं साहित्यिक
आयोजन कार्य से
सम्बध । 1985 से
साहित्यिक पत्रिका
विपाशा का संपादन
।
ढलान पर आदमी 1985), पृथ्वी
की आँच ( 1991 कविता सग्रह।
देओ राज (उपन्यास) दैनिक जनसत्ता
में धारावाहित
प्रकाशित। पहाड
से समुद्र तक, बर्फ की कोख
से संपादित कहानी
संकलन । कहानियाँ
पत्रिकाओं व संकलनों
में प्रकाशित।
रूसी, अग्रेजी
व पंजाबी आदि भाषाओं
में कुछ रचनाएँ
अनूदित होकर प्रकाशित।
कहानी संग्रह जन्मघर
तथा शोध समीक्षा
पुस्तक कविता और
समाज प्रकाशनाधीन
। साहित्य समीक्षा, साक्षात्कार
व रिपोर्ताज़ विधाओं
के अतिरिक्त मीडिया
व रंगमंच पर बीस
वर्षों से लेखन।
लिधुआनियाई ग्यारह
कवियों की कविताओं
के अंग्रेज़ी से
अनुवाद तनाव पत्रिका
के हे अंक 74 में प्रकाशित
। इन अनुवादों
के स्वतंत्र संकलन
के लिए कार्यरत।
ढलान
पर आदमी तथा पृथ्वी
की आँच के लिए हिमाचल
कला संस्कृति एव
भाषा अकादमी के
वर्ष 1986 तथा
1993 के कविता पुरस्कार।
सम्प्रति संपादक विपाशा, भाषा एवं सस्कृति
विभाग, हिमाचल
प्रदेश, 39, एस
डी ए शिमला 171009
पालि और प्राकृत
साहित्य में अपने
युग का सम्पूर्ण
सामाजिक, राजनीतिक व धार्मिक
चित्रण हुआ है, इसलिए भारत
के महान अतीत को
समझने के लिए इस
साहित्य का मूल्यांकन
महत्वपूर्ण कार्य
है इस साहित्य
मे मानवता के दो
महान मागदर्शको
बुद्ध और महावीर
की दार्शनिक और
नैतिक शिक्षाएँ
समाविष्ट है जिन्होंने
अहिंसा के नैतिक
प्रत्यय को राष्ट्रीय
चेतना में रोप
दिया।
काव्यालंकार
के प्रसिद्ध टीकाकार
नमिसाधु के अनुसार
इन भाषाओं की मूल
प्रकृति सहज जनभाषा
है,
जो वैयाकरणों
के नियमो से अनियंत्रित
है ओर नैसर्गिक
रूप मे अभिव्यक्ति
व सम्पर्क का सामान्य
माध्यम रही हैं।
लेकिन दूसरी ओर
यह भी सत्य है कि
प्रमुख आलंकारिकों
ने इन भाषाओं के
मुक्तक काव्य से, अपनी काव्यशास्त्रीय
धारणाओं की पुष्टि
के लिए पर्याप्त
उद्धरण लिए हैं।
इससे स्पष्ट होता
है कि इस काव्य
से वे सर्वाधिक
प्रभावित हुए है।
उन्हें जो संस्कृत
मे नहीं मिला, वह पालि व प्राकृत
ने दे दिया।
अक्तूबर 2000 में भारतीय
उच्च अध्ययन सस्थान, शिमला में
पालिप्राकृत मुक्तक
काव्य पर केन्द्रित
राष्ट्रीय संगोष्ठी
का आयोजन किया
गया था, जिसमें
सम्बंधित विषयों
के मूर्धन्य विद्वानों
ने भाग लिया और
अपने शोधपत्र प्रस्तुत
किए। चौदह विद्वानो
के वे शोधपत्र
इस पुस्तक मे संकलित
हैं। ये शोधपत्र
पालि और प्राकृत
विषयक लगभग ठहरे
हुए विवेचन को
नया स्पंदन देने
वाले हैं, इस काव्य चर्चा
में नये आयाम जोडने
वाले हैं। इनमें
जहां पूर्व शोध
समीक्षा की कडियां
जुडती है, वहीं पालि
प्राकृत के साहित्य
क्षेत्र में शोध
की प्रासंगिकता, सभावना और
नई दिशा की ओर भी
इसमें सार्थक सकेत
हुए है।
पालि और प्राकृत
का गीति काव्य
स्वर ताल की सगीत
में,
जीवन के
गहरे अनुभवों से
उपजी जनवाणी ही
है। गीतिकार जन्मना
कवि होता है। वह
हृदय की प्रसुप्त
भावनाओं और मन
के दबे पडे संस्कारों
कां जगा देता है
और विचारों को, भावों का बल
देकर, सक्रिय
करने में सक्षम
रहता है। उदात्त
कल्पना वाले उस
गीति स्रष्टा की
रचना श्रेष्ठ ध्वनिकाव्य
है।
साहित्यज्ञान
के किसी भी क्षेत्र
में विवेचन और
व्याख्या की आवश्यकता
बराबर बनी रहती
है। समग्र भारतीय
काव्य परम्परा
में पालिप्राकृत
मुक्तक काव्य की
पहचान और उसके
अवदान का मल्यांकन
करने वाली यह पुस्तक
निस्संदेह महत्वपूर्ण
है।
प्राक्कथन
भारत के महान अतीत
के मूल्यांकन के
लिए,
विशेष
रूप से ऐतिहासिक
युग के प्रारम्भिक
दौर में, पालि
व प्राकृत साहित्य
का विशेष महत्व
माना गया है क्योंकि
उस युग का सम्पूर्ण
सामाजिक, राजनीतिक व धार्मिक
चित्रण इस साहित्य
में हुआ है । पालि
व प्राकृत वाङ्मय
में मानवता के
दो महान मार्गदर्शकों
बुद्ध और महावीर
की दार्शनिक और
नैतिक शिक्षाएँ
समाविष्ट हैं, जिन्होंने
अहिंसा के नैतिक
प्रत्यय को राष्ट्रीय
चेतना में रोप
दिया । ब्राह्मण
धर्म के ह्रास
के साथ संस्कृत
भाषा के ऐसे विकल्प
की अपेक्षा समाज
में की जाने लगी
थी जो सामान्य
जन के सन्निकट
हो । इसी कारण लोक
प्रचलित भाषाओं
को अधिक प्रश्रय
मिला । तभी महावीर
और बुद्ध ने प्राकृतों
को अपने उपदेशों
का माध्यम बनाया
और इसके साथ ही
शिक्षित समाज में
भी इनका प्रयोग
होने लगा ।
विनयपिटक चुल्लवग्ग
में एक घटना वर्णित
है छांदस भाषा
में पारंगत तेकुल
नामक एक भिक्षु
अपनें साथी यमेर
के साथ जाकर भगवान
बुद्ध से बोला
भन्ते! इस
समय नाना नाम, गोत्र, जाति तथा कुल
कें लोग प्रव्रजित
होकर बुद्धवचन
को अपनी भाषा में
कहकर दूषित करते
हैं । भन्ते। अच्छा
हो कि हम बुद्धवचन
को छांदस (भाषा) में ग्रथित
करें । इस पर भगवान
बुद्ध ने उन्हें
फटकारते हुए कहा
भिक्षवों यह अयुक्त
और अनुचित है ।
यह न अप्रसन्नों
(श्रद्धा रहितों) को प्रसन्न
करने के लिए है, न प्रसन्नों
(की श्रद्धा) को और बढ़ाने
के लिए है । भिक्षवों
बुद्धवचन को छांदस
भाषा में ग्रथित
नहीं करना चाहिए
। जो ऐसा करेगा
उसे दुष्कृत आपत्ति
होगी । भिक्षवों
मैं अपनी भाषा
में बुद्धवचन को
सीखने की अनुमति
देता हूँ । इस कथन
में अपनी भाषा
से तात्पर्य जनसामान्य
की भाषा से ही है, क्योंकि यहाँ
बुद्ध छांदस की
अपेक्षा लोकभाषा
को महत्त्व दे
रहे हैं । इसीलिए
बुद्ध के उपदेशों
की माध्यम भाषा
पालि हुई । त्रिपिटकों
में बुद्धवचनों
को इसी भाषा में
संगृहीत किया गया
है।
रुद्रट के काव्यालंकार
के प्रसिद्ध टीकाकार
नमिसाधु का मानना
है कि इन भाषाओं
और बोलियों की
मूल प्रकृति सहज
जनभाषा है जो वैयाकरणों
के नियमों से अनियंत्रित
हैं और नैसर्गिक
रूप में अभिव्यक्ति
व सम्पर्क का सामान्य
माध्यम रही हैं
। यह देवताओं और
विद्वानों की परिष्कृत
भाषा संस्कृत से
सहज भिन्न है ।
राजशेखर ने भी
प्राकृत को स्त्री
सदृश सुकुमार और
संस्कृत को पुरुष
समान कठोर कहा
है ।
अक्तूबर 2000 मैं भारतीय
उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में
पालि प्राकृत गीति
काव्य पर केन्द्रित
राष्ट्रीय संगोष्ठी
का आयोजन किया
गया था, जिसमें
सम्बंधित विषयों
के मूर्धन्य विद्वानों
ने भाग लिया और
अपने शोध पत्र
प्रस्तुत किए।
निस्संदेह ये शोध
पत्र पालि और प्राकृत
काव्य विषयक लगभग
ठहरे हुए विवेचन
को नया स्पंदन
देने वाले हैं, इस काव्य चर्चा
में नये आयाम जोड़ने
वाले हैं । इनमें
जहाँ पूर्व शोध
समीक्षा की कड़ियाँ
जुड़ती हैं, वहीं इन भाषाओं
के काव्य क्षेत्र
में शोध की प्रासंगिकता, संभावना और
नई दिशा की ओर भी
साधक संकेत हुए
हैं । विवेचन और
व्याख्या की आवश्यकता
बराबर बनी रहती
है,
इस दिशा
में यह एक और सत्यप्रयास
है ।
संगोष्ठी में
पढ़े गए पत्रों
व लेखों को पुस्तकाकार
में सम्पादित और
प्रकाशित करने
का संस्थान ने
निर्णय लिया तो
इस सामग्री का
विद्वानों ने ग्रंथ
के लिए यथा सम्भव
परिष्कार किया
यानी संगोष्ठी
में प्रस्तुत आलेखों
को विस्तार दिया
और उन्हें संशोधित
भी किया । संगोष्ठी
का विषय पालि प्राकृत
के मुक्तक काव्य
की परिधि में था, इससे अधिक
विस्तार की एक
संगोष्ठी से अपेक्षा
भी नहीं की जा सकती
। इसलिए इस पुस्तक
की विषयवस्तु में
भी इन भाषाओं का
प्रबंध काव्य सम्मिलित
नहीं है भले ही
व्यापक तौर पर
पालि प्राकृत के
समेकित काव्य का
भी इसमें उल्लेख
हुआ है । राजशेखर
ने विषयानुसार
काव्य के दो भेद
किए है प्रबंध
काव्य और मुक्तक
काव्य । मुक्तकमन्येनालिंगितं
तस्य संज्ञायां
कन् ध्वन्यालोक
की लोचन टीका की
इस उक्ति के अनुसार
मुक्त कन् से मुकाक
बनता है, जिसका
अर्थ अपने आप में
सम्पूर्ण या अन्य
निरपेक्ष वस्तु
होता है। प्रबंधहीन
सभी पद्य रचनाएँ
मुक्तक में आती
हैं,
यह पुस्तक
पालि और प्राकृत
की इन्हीं विपुल
रचनाओं के अध्ययन
पर केन्द्रित है
।
पालि और प्राकृत
के मुक्तक काव्य
में गायन व लय प्रधान
गाथाएँ प्रमुख
हैं। गाहासत्तसई
और वज्जालग्गं
ऐसी रचनाओं के
अनूठे संग्रह हैं
। वास्तव में यह
जीवन के गहरे अनुभवों
से उपजी जनवाणी
है । लेकिन कहा
यह भी जाता है कि
गीति कवि की दृष्टि
सापेक्ष होती है, पूर्ण सत्य
का उद्घाटन नहीं
कर पाती । परन्तु
गीति के माध्यम
से महान सत्यों
को छूने वाले भी
कवि हुए है । वस्तुत
गीति कवि जन्मना
कवि होता है । वह
कम से कम शब्दों
के सहारे, स्वर ताल की
संगति में, हृदय की प्रसुप्त
भावनाओं और मन
के दबे पड़े संस्कारों
को जगा देता है
। वह विचारों को
भावों का बल देकर
सक्रिय करने में
सक्षम रहता है।
उदात्तकल्पना
वाले उस गीति स्रष्टा
की रचना श्रेष्ठ
ध्वनि काव्य है
। संभवत यही कारण
है कि सभी प्रमुख
अलंकार शास्त्रियों
नें अपनी स्थापनाओं
और लक्षणों की
पुष्टि के लिए
इस गाथा मुक्तक
काव्य से पर्याप्त
उद्धरण लिए हैं
। इससे यह भी स्पष्ट
होता है कि इस काव्य
से आलंकारिक सर्वाधिक
प्रभावित हुए, इसीलिए संस्कारपूता
संस्कृत को छोड्कर
उन्होंने सुखग्राह्यनिबंधना
प्राकृत की काव्य
छटा को हृदय से
स्वीकार किया ।
वास्तव में भावप्रवणता
की तीव्रता में
ही काव्य फलीभूत
होता है । विलासमय
वातावरण और भौतिक
आकांक्षाओं से
आक्रांत यांत्रिक
सभ्यता इसे पनपने
नहीं देते। प्रेम
का विराट भाव ही
काव्य का सर्वाधिक
प्रिय भाव है, यही मानव मन
की नाना वृत्तियों
का स्रोत है । बुद्ध
में अगाध करुणा
थी,
इसलिए
उनसे बड़ा कवि कौन
था?
बौद्ध
कवियों का उद्देश्य
प्रेमभाव का बीज
बोना ही रहा । लोकाश्रित
भाषा और उसके मुक्तक
काव्य में यह प्रेमभाव
सहज संभाव्य है
।
इस पुस्तक की सामग्री
के रूप में जो शोध
पत्र उपलब्ध थे, उन्हें खंडों
या अनुभागों में
बांटने की आवश्यकता
प्रतीत नहीं हुई
। इन्हें जो कम
दिया गया है उसकी
भी कोई विशेष योजना
नहीं है । चौदह
विद्वानों के इन
शोध लेखों में
पाठक कै अध्ययन
का एक सहज सिलसिला
बन पाएगा, ऐसी आशा है
। सभी लेख अलग पक्षों
को लेकर हैं, लेकिन कहीं
भूमिका बांधते
या उपसंहार करते
दोहराव जान पड़े
तो इसे मुकर्रर
के अंदाज़े बया
में मान लिया जाए
।
पालि और प्राकृत
काव्य में प्रगीतत्व
की परम्परा के
गवाक्ष खोलते हुए
प्रोफेसर गोविन्द
चन्द्र पाण्डे
गाथा सत्तसई जैसी
रचनाओं के अध्ययन
की सुदीर्घ परम्परा
को रेखांकित करते
हैं । उनका मानना
है कि गाथाओं की
अंतर्वस्तु पुरानी
भारतीय परम्पराओं
का एक सनातन पक्ष
प्रकट करती है
।काम की तत्त्व
चिन्ता को गाथाओं
का विषय बताया
गया है । यह काम
शब्द किसी निन्दनीय
अर्थ में प्रयुक्त
नहीं मानना चाहिए
। प्राचीन भारतीय
परम्परा के आदि
युग में काम की
भर्त्सना नहीं
की जाती थी ।. इसलिए काम
निन्दनीय नहीं
है,
बल्कि
व्यभिचार निन्दनीय
है। दाम्पत्य
के सूत्र के रूप
में काम को प्रेम
से अलग नहीं किया
जा सकता । इसीलिए
प्राचीन साहित्य
में प्राय काम
स्त्री पुरुष विषयक
प्रेम से अर्थत
अभिन्न माना गया
है । प्राकृत पालि
अपभ्रंश की मुक्तक
कविता को लेकर
प्रोफेसर वृषभ
प्रसाद जैन कहते
हैं कि प्राकृत
से आरम्भ हुई यह
कविता अपभ्रंश
तक की यात्रा करती
है,
इसमें
उपादानों, प्रतीकों की
छटा तथा काव्य
भंगिमा की एकसूत्रता
है । वह मुक्तकों
में जन साधारण
की मनोवृत्ति की
सच्ची अभिव्यक्ति
को रेखांकित करते
हैं और उद्धरण
स्वरूप दिए गए
पद्यों का स्वयंहिन्दी
अनुवाद भी उन्होंने
किया है, जो
स्वच्छंद होकर
भी लय प्रधान है
।
प्रोफेसर अंगराज
चौधरी के अनुसार
पालि साहित्य प्रवृत्तिपरक
न होकर निवृत्तिपरक
है । यहाँ भोग की
नहीं, त्याग
की बात कही गई है
और आसक्ति के स्थान
पर निर्वेद को
महत्त्व दिया गया
है । निर्वेद का
विकास शांत तक
पहुँचता है । पूरा
गीतिकाव्य शांत
रस की निष्पत्ति
करता है और साहित्य
में शांत रस को
प्रतिष्ठापित
करने में बौद्ध
साहित्य का बहुत
बड़ा योगदान है
। प्रोफेसर चौधरी
व्यक्तिगत भावों
के वर्णन को गीति
काव्य का आवश्यक
तत्त्व मानते हैं
और इसके साथ ही
दूसरा तत्त्व है
भावों का द्वंद्व
। इससे ही भावों
की तीव्रता बनती
है,
जो समर्थ
साहित्यिक भाषा
शैली के माध्यम
से अप्रतिम गीति
काव्य को जन्म
देती है । पालि
की गाथाओं में
वह प्रकृति वर्णन
को रति जगाने के
लिए नहीं, बल्कि निर्वाण
प्राप्ति हेतु
उद्यम करने की
प्रेरणा देने के
लिए मानते हैं
। डॉ विजय कुमार
जैन ने आचार्यों
द्वारा रचित अनेक
पालि काव्य ग्रंथों
का परिचय सोदाहरण
दिया है और त्रिपिटक
के मुक्तक काव्य
का भी उल्लेख किया
है । इस विशद् विवेचन
में पालि काव्य
के तेलकटाह गाथा, काव्यजीवी
वंगीस और बुद्ध
से यक्ष प्रश्न
जैसे कई रोचक प्रसंग
भी सामने आते हैं
। वह पालि काव्य
को जाति, धर्म
रहित विश्व मानव
का साहित्य मानते
हैं । डॉ हरिराम
मिश्र ने पालि
प्रगीतों के काव्यात्मक
वैशिष्ट्य का सोदाहरण
आकलन किया हैं
।
प्राकृत काव्य
शैली की अपनी पहचान
और परवर्ती भारतीय
साहित्य पर उसके
प्रभाव की पड़ताल
करते हुए डॉ कलानाथ
शास्त्री ने अभिव्यक्ति
भंगिमाओं या अंदाज़े
बया पर एकाग्र
जो अध्ययन प्रस्तुत
किया है यह निस्संदेह
रोचक और सार्थक
है । उनका मानना
है कि इन ललित अभिव्यक्तियों
से चमत्कृत या
कहीं गहरे प्रभावित
होकर ही उगनन्दवर्द्धन
से लेकर विश्वनाथ
तक सभी प्रमुख
काव्य शास्त्रियों
ने रस, ध्वनि
या अलंकार आदि
के उदाहरण के रूप
में प्राकृत गाथाओं
से भरपूर उद्धरण
लिए हैं । इससे
सिद्ध होता है
कि जो उन्हें संस्कृत
में नहीं मिला, वह प्राकृत
ने दिया है । वस्तुत
लोकजीवन का जो
घना अनुभव काव्य
में आता है वही
दूरगामी प्रभाव
छोड़ता है। इस दृष्टि
से यह सत्य है कि
सहज भावप्रवणता
से जन्मी प्राकृत
कविता की मौलिक
भणिति भंगी और
कवि कल्पनाएँ ही
इस काव्य को भारतीय
वाङ्मय में महत्वपूर्ण
बनाती हैं । गीतिकाव्य
परम्परा के कदाचित्
प्राचीनतम ग्रंथ
धम्मपद के, काव्य की आधार
प्रतिष्ठा में
योगदान सम्बंधी
मूल्यांकन की आवश्यकता
की ओर भी विद्वान
ने संकेत किया
है ।
प्रोफेसर हरिराम
आचार्य का शोध
पत्र गाहा छंद
पर केन्द्रित है
। निस्संदेह यह
छंद प्राकृत मुक्तकों
की अमाप्य माला
पिरोने वाला प्रमुख
सूत्र हैं । संस्कृत
केपिंगल शास्त्र
में इसे भले ही
स्थान नहीं मिला, जनकंठों में
इस छंद की खनक बराबर
बनी रही । तभी तो
गाँवों में जन्मी, पली, बढ़ी
लावण्यमयी अल्हड़
ग्राम बाला सी
गाहा नागरिकाओं
के प्रेंमी संस्कृत
पंडितों का निरंतर
मन मोहती रही है।
काव्य और संगीत
की विशद् परम्पराओं
को परस्पर जोड्ने
वाला एक छंदगत
यह अध्ययन महत्त्वपूर्ण
है । प्रोफेसर
धर्मचन्द्र जैन
ने सट्टक कहलाने
वाली छह प्राकृत
नाटिकाओं में प्रकृति
चित्रण पर उदाहरण
सहित प्रकाश डाला
है और इस काव्य
में मनुष्य व प्रकृति
के घनिष्ठ सम्बंध
को उद्घाटित किया
है। प्रमुख प्राकृत
गीति काव्य का
विवेचन करते हुए
डॉ.
श्रीरंजनसूरि
का मानना हैं कि
अनुभूति की तीव्रता, अलंकृत अभिव्यक्ति, बिम्बात्मकता
एवं स्फूर्ति को
रूपायित करने का
आग्रह ये सब मुक्तक
काव्य की आंतरिक
सौन्दर्य वृद्धि
के मूल कारक हैं
। धर्म और कामतत्त्व
की युगसंधि पर
प्रतिष्ठित प्राकृत
मुक्तक में निहित
रागात्मक अनुभूति
तथा कल्पना की
रमणीयता से वर्ण्य
विषय में भाव माधुर्य
का मोहक विनियोग
हुआ है ।
पार्वती और पशुपति
शीर्षक लेख में
प्रोफेसर गोविन्द
चन्द्र पाण्डे
प्राकृत काव्य
में अभिव्यक्ति
कौशल व अर्थ संप्रेषण
की निगूढ़ता में
उतरकर, टीकाकारों
की व्याख्याओं
का संदर्भ देते
हुए,
काव्य
की सूक्ष्म समझ
की ओर इंगित करते
हैं । उदाहरणों
के माध्यम से हुई
इस व्याख्या में
काव्यास्वाद का
सलीका और काव्य
ध्वनि या काव्य
मर्म को ग्रहण
करने का तरीका
है । काव्य शास्त्रीय
संवाद और विमर्श
को आगे बढ़ाने की
दिशा में भी यह
सार्थक है क्योंकि
स्थापित मान्यताओं
पर प्रश्न उठाकर
यहाँ नये आयाम
जोड़ने का उपक्रम
है । तभी प्रोफेसर
पाण्डे कहते हैं
व्याख्या की परम्परा
कभी समाप्त नहीं
होती ।
गाथा सप्तशती
में उपचार वक्रता
शीर्षक के अन्तर्गत
डॉ हरिशंकर पाण्डेय
ने विषयगत अध्ययन
प्रस्तुत किया
है । भावाभिव्यक्ति
को सशक्त बनाने
में सहायक उपचार
वक्रता एक लाक्षणिक
प्रयोग है, इसके विभिन्न
पक्षों पर प्रकाश
डाला गया है । डॉ. राका जैन ने
गाहासत्तसई और
कालिदास के काव्य
में भाव साम्य
का सोदाहरण विश्लेषण
किया है और डॉ सुदीप
जैन प्राकृत के
महत्वपूर्ण सुभाषित
ग्रंथ वज्जालग्गं
की काव्यात्मक
समीक्षा करते हुए, इस ग्रंथ का
प्रमुख उद्देश्य
प्राकृत भाषा साहित्य
का प्रचार भी मानते
हैं क्योंकि श्रेष्ठ
रचनाओं का संरक्षण
और प्रसार भी इस
अप्रतिम संग्रह
के द्वारा हो सका
है । इस पुस्तक
के अंत में डॉ पुष्पलता
जैन का लेख पालि
प्राकृत अपभ्रंश
गीति काव्य का
हिन्दी काव्य पर
प्रभाव दर्शाता
है । हिन्दी के
प्रथम गीतिकार
विद्यापति से लेकर
समकालीन नवगीतकारों
तक यह प्रभाव कविता
के अनेक कालों, आदोलनों वप्रवृत्तियों
से होकर गुज़रता
है । इससे यह भी
सिद्ध हो जाता
है कि पालि प्राकृत
के गीति मुक्तक
काव्य की अनुगूँज
भारतीय काव्य की
बहुभाषी अजस्रधारा
में आज तक चली आ
रही है ।
समग्र भारतीय
काव्य परम्परा
में पालि प्राकृत
के मुक्तक काव्य
की पहचान और उसके
अवदान का मूल्यांकन
करने की दिशा में, यह ग्रंथ जितना
सार्थक सिद्ध होता
है,
इसका श्रेय
इसमें योग देने
वाले विद्वानों
को जाता है।
भारतीय उच्च अध्ययन
संस्थान ने इस
महत्त्वपूर्ण
कार्य योजना को
संगोष्ठी के माध्यम
से प्रारम्भ करके
इसे पुस्तक रूप
में प्रस्तुत करने
का जो कार्य किया
है,
यह साहित्य
ज्ञान के क्षेत्र
में एक सार्थक
और महत्वपूर्ण
सोपान है। संस्थान
के निदेशक प्रोफेसर
विनोदचन्द्र श्रीवास्तव
के प्रति आभार
व्यक्त करता हूँ
जिन्होंने मुझे
इस पुस्तक के सम्पादन
का दायित्व सौंपा
। इस कार्य में
संस्थान के जा
संपर्क अधिकारी
श्री अशोक शर्मा
के संपर्क सहयोग
के लिए भी कृतज्ञ
हूँ।
अनुक्रम |
||
संदेश |
||
1 |
आमुख |
|
2 |
प्राक्कथन |
|
3 |
पालि और प्राकृत काव्य में प्रगीतत्व की |
1 |
4 |
पालि प्राकृत अपभ्रंश और मुक्तक कविता |
14 |
5 |
पालि गीतिकाव्य के तत्त्व |
25 |
6 |
पालि साहित्य में मुक्तक तथा गेय काव्य |
56 |
7 |
पालि साहित्य में सौन्दर्य सुक्तनिपात |
74 |
8 |
प्राकृत काव्य शैली का दूरगामी प्रभाव |
82 |
9 |
प्राकृत धम्मपद का काव्य सौंदर्य |
91 |
10 |
प्राकृत मुक्तक काव्य परम्परा का लोकप्रिय छंद गाहा |
102 |
11 |
प्राकृत सट्टकों में प्रकृति चित्रण |
115 |
12 |
प्राकृत साहित्य में गीतिकाव्य |
125 |
13 |
पार्वती और पशुपति |
135 |
14 |
गाथा सप्तशती में उपचार वक्रता |
142 |
15 |
गाहासतसई और कालिदास के काव्य में भाव साम्य राका जैन |
150 |
16 |
वज्जालग्गं की काव्यात्मक समीक्षा |
160 |
17 |
पालि प्राकृत अपभ्रंश प्रगीत काव्य का हिन्दी गीतिकाव्य पर प्रभाव |
168 |
लेखक
परिचय
जन्म 25 सितम्बर, । 954, शिमला
के निकट गांव मान्दल
(घूंड) में। एम. ए. (संस्कृत
व हिन्दी), साहित्याचार्य, हिमाचल प्रदेश
विश्वविद्यालय।
पी एच डी (समकालीन हिन्दी
कविता) गुरुनानकदेव
विश्विद्यालय
अमृतसर।
कूछ वर्षो तक अध्यापन
के बाद 1979 से
हिमाचल प्रदेश
के भाषा एवं सस्कृति
विभाग मे संपादन
एवं साहित्यिक
आयोजन कार्य से
सम्बध । 1985 से
साहित्यिक पत्रिका
विपाशा का संपादन
।
ढलान पर आदमी 1985), पृथ्वी
की आँच ( 1991 कविता सग्रह।
देओ राज (उपन्यास) दैनिक जनसत्ता
में धारावाहित
प्रकाशित। पहाड
से समुद्र तक, बर्फ की कोख
से संपादित कहानी
संकलन । कहानियाँ
पत्रिकाओं व संकलनों
में प्रकाशित।
रूसी, अग्रेजी
व पंजाबी आदि भाषाओं
में कुछ रचनाएँ
अनूदित होकर प्रकाशित।
कहानी संग्रह जन्मघर
तथा शोध समीक्षा
पुस्तक कविता और
समाज प्रकाशनाधीन
। साहित्य समीक्षा, साक्षात्कार
व रिपोर्ताज़ विधाओं
के अतिरिक्त मीडिया
व रंगमंच पर बीस
वर्षों से लेखन।
लिधुआनियाई ग्यारह
कवियों की कविताओं
के अंग्रेज़ी से
अनुवाद तनाव पत्रिका
के हे अंक 74 में प्रकाशित
। इन अनुवादों
के स्वतंत्र संकलन
के लिए कार्यरत।
ढलान
पर आदमी तथा पृथ्वी
की आँच के लिए हिमाचल
कला संस्कृति एव
भाषा अकादमी के
वर्ष 1986 तथा
1993 के कविता पुरस्कार।
सम्प्रति संपादक विपाशा, भाषा एवं सस्कृति
विभाग, हिमाचल
प्रदेश, 39, एस
डी ए शिमला 171009
पालि और प्राकृत
साहित्य में अपने
युग का सम्पूर्ण
सामाजिक, राजनीतिक व धार्मिक
चित्रण हुआ है, इसलिए भारत
के महान अतीत को
समझने के लिए इस
साहित्य का मूल्यांकन
महत्वपूर्ण कार्य
है इस साहित्य
मे मानवता के दो
महान मागदर्शको
बुद्ध और महावीर
की दार्शनिक और
नैतिक शिक्षाएँ
समाविष्ट है जिन्होंने
अहिंसा के नैतिक
प्रत्यय को राष्ट्रीय
चेतना में रोप
दिया।
काव्यालंकार
के प्रसिद्ध टीकाकार
नमिसाधु के अनुसार
इन भाषाओं की मूल
प्रकृति सहज जनभाषा
है,
जो वैयाकरणों
के नियमो से अनियंत्रित
है ओर नैसर्गिक
रूप मे अभिव्यक्ति
व सम्पर्क का सामान्य
माध्यम रही हैं।
लेकिन दूसरी ओर
यह भी सत्य है कि
प्रमुख आलंकारिकों
ने इन भाषाओं के
मुक्तक काव्य से, अपनी काव्यशास्त्रीय
धारणाओं की पुष्टि
के लिए पर्याप्त
उद्धरण लिए हैं।
इससे स्पष्ट होता
है कि इस काव्य
से वे सर्वाधिक
प्रभावित हुए है।
उन्हें जो संस्कृत
मे नहीं मिला, वह पालि व प्राकृत
ने दे दिया।
अक्तूबर 2000 में भारतीय
उच्च अध्ययन सस्थान, शिमला में
पालिप्राकृत मुक्तक
काव्य पर केन्द्रित
राष्ट्रीय संगोष्ठी
का आयोजन किया
गया था, जिसमें
सम्बंधित विषयों
के मूर्धन्य विद्वानों
ने भाग लिया और
अपने शोधपत्र प्रस्तुत
किए। चौदह विद्वानो
के वे शोधपत्र
इस पुस्तक मे संकलित
हैं। ये शोधपत्र
पालि और प्राकृत
विषयक लगभग ठहरे
हुए विवेचन को
नया स्पंदन देने
वाले हैं, इस काव्य चर्चा
में नये आयाम जोडने
वाले हैं। इनमें
जहां पूर्व शोध
समीक्षा की कडियां
जुडती है, वहीं पालि
प्राकृत के साहित्य
क्षेत्र में शोध
की प्रासंगिकता, सभावना और
नई दिशा की ओर भी
इसमें सार्थक सकेत
हुए है।
पालि और प्राकृत
का गीति काव्य
स्वर ताल की सगीत
में,
जीवन के
गहरे अनुभवों से
उपजी जनवाणी ही
है। गीतिकार जन्मना
कवि होता है। वह
हृदय की प्रसुप्त
भावनाओं और मन
के दबे पडे संस्कारों
कां जगा देता है
और विचारों को, भावों का बल
देकर, सक्रिय
करने में सक्षम
रहता है। उदात्त
कल्पना वाले उस
गीति स्रष्टा की
रचना श्रेष्ठ ध्वनिकाव्य
है।
साहित्यज्ञान
के किसी भी क्षेत्र
में विवेचन और
व्याख्या की आवश्यकता
बराबर बनी रहती
है। समग्र भारतीय
काव्य परम्परा
में पालिप्राकृत
मुक्तक काव्य की
पहचान और उसके
अवदान का मल्यांकन
करने वाली यह पुस्तक
निस्संदेह महत्वपूर्ण
है।
प्राक्कथन
भारत के महान अतीत
के मूल्यांकन के
लिए,
विशेष
रूप से ऐतिहासिक
युग के प्रारम्भिक
दौर में, पालि
व प्राकृत साहित्य
का विशेष महत्व
माना गया है क्योंकि
उस युग का सम्पूर्ण
सामाजिक, राजनीतिक व धार्मिक
चित्रण इस साहित्य
में हुआ है । पालि
व प्राकृत वाङ्मय
में मानवता के
दो महान मार्गदर्शकों
बुद्ध और महावीर
की दार्शनिक और
नैतिक शिक्षाएँ
समाविष्ट हैं, जिन्होंने
अहिंसा के नैतिक
प्रत्यय को राष्ट्रीय
चेतना में रोप
दिया । ब्राह्मण
धर्म के ह्रास
के साथ संस्कृत
भाषा के ऐसे विकल्प
की अपेक्षा समाज
में की जाने लगी
थी जो सामान्य
जन के सन्निकट
हो । इसी कारण लोक
प्रचलित भाषाओं
को अधिक प्रश्रय
मिला । तभी महावीर
और बुद्ध ने प्राकृतों
को अपने उपदेशों
का माध्यम बनाया
और इसके साथ ही
शिक्षित समाज में
भी इनका प्रयोग
होने लगा ।
विनयपिटक चुल्लवग्ग
में एक घटना वर्णित
है छांदस भाषा
में पारंगत तेकुल
नामक एक भिक्षु
अपनें साथी यमेर
के साथ जाकर भगवान
बुद्ध से बोला
भन्ते! इस
समय नाना नाम, गोत्र, जाति तथा कुल
कें लोग प्रव्रजित
होकर बुद्धवचन
को अपनी भाषा में
कहकर दूषित करते
हैं । भन्ते। अच्छा
हो कि हम बुद्धवचन
को छांदस (भाषा) में ग्रथित
करें । इस पर भगवान
बुद्ध ने उन्हें
फटकारते हुए कहा
भिक्षवों यह अयुक्त
और अनुचित है ।
यह न अप्रसन्नों
(श्रद्धा रहितों) को प्रसन्न
करने के लिए है, न प्रसन्नों
(की श्रद्धा) को और बढ़ाने
के लिए है । भिक्षवों
बुद्धवचन को छांदस
भाषा में ग्रथित
नहीं करना चाहिए
। जो ऐसा करेगा
उसे दुष्कृत आपत्ति
होगी । भिक्षवों
मैं अपनी भाषा
में बुद्धवचन को
सीखने की अनुमति
देता हूँ । इस कथन
में अपनी भाषा
से तात्पर्य जनसामान्य
की भाषा से ही है, क्योंकि यहाँ
बुद्ध छांदस की
अपेक्षा लोकभाषा
को महत्त्व दे
रहे हैं । इसीलिए
बुद्ध के उपदेशों
की माध्यम भाषा
पालि हुई । त्रिपिटकों
में बुद्धवचनों
को इसी भाषा में
संगृहीत किया गया
है।
रुद्रट के काव्यालंकार
के प्रसिद्ध टीकाकार
नमिसाधु का मानना
है कि इन भाषाओं
और बोलियों की
मूल प्रकृति सहज
जनभाषा है जो वैयाकरणों
के नियमों से अनियंत्रित
हैं और नैसर्गिक
रूप में अभिव्यक्ति
व सम्पर्क का सामान्य
माध्यम रही हैं
। यह देवताओं और
विद्वानों की परिष्कृत
भाषा संस्कृत से
सहज भिन्न है ।
राजशेखर ने भी
प्राकृत को स्त्री
सदृश सुकुमार और
संस्कृत को पुरुष
समान कठोर कहा
है ।
अक्तूबर 2000 मैं भारतीय
उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में
पालि प्राकृत गीति
काव्य पर केन्द्रित
राष्ट्रीय संगोष्ठी
का आयोजन किया
गया था, जिसमें
सम्बंधित विषयों
के मूर्धन्य विद्वानों
ने भाग लिया और
अपने शोध पत्र
प्रस्तुत किए।
निस्संदेह ये शोध
पत्र पालि और प्राकृत
काव्य विषयक लगभग
ठहरे हुए विवेचन
को नया स्पंदन
देने वाले हैं, इस काव्य चर्चा
में नये आयाम जोड़ने
वाले हैं । इनमें
जहाँ पूर्व शोध
समीक्षा की कड़ियाँ
जुड़ती हैं, वहीं इन भाषाओं
के काव्य क्षेत्र
में शोध की प्रासंगिकता, संभावना और
नई दिशा की ओर भी
साधक संकेत हुए
हैं । विवेचन और
व्याख्या की आवश्यकता
बराबर बनी रहती
है,
इस दिशा
में यह एक और सत्यप्रयास
है ।
संगोष्ठी में
पढ़े गए पत्रों
व लेखों को पुस्तकाकार
में सम्पादित और
प्रकाशित करने
का संस्थान ने
निर्णय लिया तो
इस सामग्री का
विद्वानों ने ग्रंथ
के लिए यथा सम्भव
परिष्कार किया
यानी संगोष्ठी
में प्रस्तुत आलेखों
को विस्तार दिया
और उन्हें संशोधित
भी किया । संगोष्ठी
का विषय पालि प्राकृत
के मुक्तक काव्य
की परिधि में था, इससे अधिक
विस्तार की एक
संगोष्ठी से अपेक्षा
भी नहीं की जा सकती
। इसलिए इस पुस्तक
की विषयवस्तु में
भी इन भाषाओं का
प्रबंध काव्य सम्मिलित
नहीं है भले ही
व्यापक तौर पर
पालि प्राकृत के
समेकित काव्य का
भी इसमें उल्लेख
हुआ है । राजशेखर
ने विषयानुसार
काव्य के दो भेद
किए है प्रबंध
काव्य और मुक्तक
काव्य । मुक्तकमन्येनालिंगितं
तस्य संज्ञायां
कन् ध्वन्यालोक
की लोचन टीका की
इस उक्ति के अनुसार
मुक्त कन् से मुकाक
बनता है, जिसका
अर्थ अपने आप में
सम्पूर्ण या अन्य
निरपेक्ष वस्तु
होता है। प्रबंधहीन
सभी पद्य रचनाएँ
मुक्तक में आती
हैं,
यह पुस्तक
पालि और प्राकृत
की इन्हीं विपुल
रचनाओं के अध्ययन
पर केन्द्रित है
।
पालि और प्राकृत
के मुक्तक काव्य
में गायन व लय प्रधान
गाथाएँ प्रमुख
हैं। गाहासत्तसई
और वज्जालग्गं
ऐसी रचनाओं के
अनूठे संग्रह हैं
। वास्तव में यह
जीवन के गहरे अनुभवों
से उपजी जनवाणी
है । लेकिन कहा
यह भी जाता है कि
गीति कवि की दृष्टि
सापेक्ष होती है, पूर्ण सत्य
का उद्घाटन नहीं
कर पाती । परन्तु
गीति के माध्यम
से महान सत्यों
को छूने वाले भी
कवि हुए है । वस्तुत
गीति कवि जन्मना
कवि होता है । वह
कम से कम शब्दों
के सहारे, स्वर ताल की
संगति में, हृदय की प्रसुप्त
भावनाओं और मन
के दबे पड़े संस्कारों
को जगा देता है
। वह विचारों को
भावों का बल देकर
सक्रिय करने में
सक्षम रहता है।
उदात्तकल्पना
वाले उस गीति स्रष्टा
की रचना श्रेष्ठ
ध्वनि काव्य है
। संभवत यही कारण
है कि सभी प्रमुख
अलंकार शास्त्रियों
नें अपनी स्थापनाओं
और लक्षणों की
पुष्टि के लिए
इस गाथा मुक्तक
काव्य से पर्याप्त
उद्धरण लिए हैं
। इससे यह भी स्पष्ट
होता है कि इस काव्य
से आलंकारिक सर्वाधिक
प्रभावित हुए, इसीलिए संस्कारपूता
संस्कृत को छोड्कर
उन्होंने सुखग्राह्यनिबंधना
प्राकृत की काव्य
छटा को हृदय से
स्वीकार किया ।
वास्तव में भावप्रवणता
की तीव्रता में
ही काव्य फलीभूत
होता है । विलासमय
वातावरण और भौतिक
आकांक्षाओं से
आक्रांत यांत्रिक
सभ्यता इसे पनपने
नहीं देते। प्रेम
का विराट भाव ही
काव्य का सर्वाधिक
प्रिय भाव है, यही मानव मन
की नाना वृत्तियों
का स्रोत है । बुद्ध
में अगाध करुणा
थी,
इसलिए
उनसे बड़ा कवि कौन
था?
बौद्ध
कवियों का उद्देश्य
प्रेमभाव का बीज
बोना ही रहा । लोकाश्रित
भाषा और उसके मुक्तक
काव्य में यह प्रेमभाव
सहज संभाव्य है
।
इस पुस्तक की सामग्री
के रूप में जो शोध
पत्र उपलब्ध थे, उन्हें खंडों
या अनुभागों में
बांटने की आवश्यकता
प्रतीत नहीं हुई
। इन्हें जो कम
दिया गया है उसकी
भी कोई विशेष योजना
नहीं है । चौदह
विद्वानों के इन
शोध लेखों में
पाठक कै अध्ययन
का एक सहज सिलसिला
बन पाएगा, ऐसी आशा है
। सभी लेख अलग पक्षों
को लेकर हैं, लेकिन कहीं
भूमिका बांधते
या उपसंहार करते
दोहराव जान पड़े
तो इसे मुकर्रर
के अंदाज़े बया
में मान लिया जाए
।
पालि और प्राकृत
काव्य में प्रगीतत्व
की परम्परा के
गवाक्ष खोलते हुए
प्रोफेसर गोविन्द
चन्द्र पाण्डे
गाथा सत्तसई जैसी
रचनाओं के अध्ययन
की सुदीर्घ परम्परा
को रेखांकित करते
हैं । उनका मानना
है कि गाथाओं की
अंतर्वस्तु पुरानी
भारतीय परम्पराओं
का एक सनातन पक्ष
प्रकट करती है
।काम की तत्त्व
चिन्ता को गाथाओं
का विषय बताया
गया है । यह काम
शब्द किसी निन्दनीय
अर्थ में प्रयुक्त
नहीं मानना चाहिए
। प्राचीन भारतीय
परम्परा के आदि
युग में काम की
भर्त्सना नहीं
की जाती थी ।. इसलिए काम
निन्दनीय नहीं
है,
बल्कि
व्यभिचार निन्दनीय
है। दाम्पत्य
के सूत्र के रूप
में काम को प्रेम
से अलग नहीं किया
जा सकता । इसीलिए
प्राचीन साहित्य
में प्राय काम
स्त्री पुरुष विषयक
प्रेम से अर्थत
अभिन्न माना गया
है । प्राकृत पालि
अपभ्रंश की मुक्तक
कविता को लेकर
प्रोफेसर वृषभ
प्रसाद जैन कहते
हैं कि प्राकृत
से आरम्भ हुई यह
कविता अपभ्रंश
तक की यात्रा करती
है,
इसमें
उपादानों, प्रतीकों की
छटा तथा काव्य
भंगिमा की एकसूत्रता
है । वह मुक्तकों
में जन साधारण
की मनोवृत्ति की
सच्ची अभिव्यक्ति
को रेखांकित करते
हैं और उद्धरण
स्वरूप दिए गए
पद्यों का स्वयंहिन्दी
अनुवाद भी उन्होंने
किया है, जो
स्वच्छंद होकर
भी लय प्रधान है
।
प्रोफेसर अंगराज
चौधरी के अनुसार
पालि साहित्य प्रवृत्तिपरक
न होकर निवृत्तिपरक
है । यहाँ भोग की
नहीं, त्याग
की बात कही गई है
और आसक्ति के स्थान
पर निर्वेद को
महत्त्व दिया गया
है । निर्वेद का
विकास शांत तक
पहुँचता है । पूरा
गीतिकाव्य शांत
रस की निष्पत्ति
करता है और साहित्य
में शांत रस को
प्रतिष्ठापित
करने में बौद्ध
साहित्य का बहुत
बड़ा योगदान है
। प्रोफेसर चौधरी
व्यक्तिगत भावों
के वर्णन को गीति
काव्य का आवश्यक
तत्त्व मानते हैं
और इसके साथ ही
दूसरा तत्त्व है
भावों का द्वंद्व
। इससे ही भावों
की तीव्रता बनती
है,
जो समर्थ
साहित्यिक भाषा
शैली के माध्यम
से अप्रतिम गीति
काव्य को जन्म
देती है । पालि
की गाथाओं में
वह प्रकृति वर्णन
को रति जगाने के
लिए नहीं, बल्कि निर्वाण
प्राप्ति हेतु
उद्यम करने की
प्रेरणा देने के
लिए मानते हैं
। डॉ विजय कुमार
जैन ने आचार्यों
द्वारा रचित अनेक
पालि काव्य ग्रंथों
का परिचय सोदाहरण
दिया है और त्रिपिटक
के मुक्तक काव्य
का भी उल्लेख किया
है । इस विशद् विवेचन
में पालि काव्य
के तेलकटाह गाथा, काव्यजीवी
वंगीस और बुद्ध
से यक्ष प्रश्न
जैसे कई रोचक प्रसंग
भी सामने आते हैं
। वह पालि काव्य
को जाति, धर्म
रहित विश्व मानव
का साहित्य मानते
हैं । डॉ हरिराम
मिश्र ने पालि
प्रगीतों के काव्यात्मक
वैशिष्ट्य का सोदाहरण
आकलन किया हैं
।
प्राकृत काव्य
शैली की अपनी पहचान
और परवर्ती भारतीय
साहित्य पर उसके
प्रभाव की पड़ताल
करते हुए डॉ कलानाथ
शास्त्री ने अभिव्यक्ति
भंगिमाओं या अंदाज़े
बया पर एकाग्र
जो अध्ययन प्रस्तुत
किया है यह निस्संदेह
रोचक और सार्थक
है । उनका मानना
है कि इन ललित अभिव्यक्तियों
से चमत्कृत या
कहीं गहरे प्रभावित
होकर ही उगनन्दवर्द्धन
से लेकर विश्वनाथ
तक सभी प्रमुख
काव्य शास्त्रियों
ने रस, ध्वनि
या अलंकार आदि
के उदाहरण के रूप
में प्राकृत गाथाओं
से भरपूर उद्धरण
लिए हैं । इससे
सिद्ध होता है
कि जो उन्हें संस्कृत
में नहीं मिला, वह प्राकृत
ने दिया है । वस्तुत
लोकजीवन का जो
घना अनुभव काव्य
में आता है वही
दूरगामी प्रभाव
छोड़ता है। इस दृष्टि
से यह सत्य है कि
सहज भावप्रवणता
से जन्मी प्राकृत
कविता की मौलिक
भणिति भंगी और
कवि कल्पनाएँ ही
इस काव्य को भारतीय
वाङ्मय में महत्वपूर्ण
बनाती हैं । गीतिकाव्य
परम्परा के कदाचित्
प्राचीनतम ग्रंथ
धम्मपद के, काव्य की आधार
प्रतिष्ठा में
योगदान सम्बंधी
मूल्यांकन की आवश्यकता
की ओर भी विद्वान
ने संकेत किया
है ।
प्रोफेसर हरिराम
आचार्य का शोध
पत्र गाहा छंद
पर केन्द्रित है
। निस्संदेह यह
छंद प्राकृत मुक्तकों
की अमाप्य माला
पिरोने वाला प्रमुख
सूत्र हैं । संस्कृत
केपिंगल शास्त्र
में इसे भले ही
स्थान नहीं मिला, जनकंठों में
इस छंद की खनक बराबर
बनी रही । तभी तो
गाँवों में जन्मी, पली, बढ़ी
लावण्यमयी अल्हड़
ग्राम बाला सी
गाहा नागरिकाओं
के प्रेंमी संस्कृत
पंडितों का निरंतर
मन मोहती रही है।
काव्य और संगीत
की विशद् परम्पराओं
को परस्पर जोड्ने
वाला एक छंदगत
यह अध्ययन महत्त्वपूर्ण
है । प्रोफेसर
धर्मचन्द्र जैन
ने सट्टक कहलाने
वाली छह प्राकृत
नाटिकाओं में प्रकृति
चित्रण पर उदाहरण
सहित प्रकाश डाला
है और इस काव्य
में मनुष्य व प्रकृति
के घनिष्ठ सम्बंध
को उद्घाटित किया
है। प्रमुख प्राकृत
गीति काव्य का
विवेचन करते हुए
डॉ.
श्रीरंजनसूरि
का मानना हैं कि
अनुभूति की तीव्रता, अलंकृत अभिव्यक्ति, बिम्बात्मकता
एवं स्फूर्ति को
रूपायित करने का
आग्रह ये सब मुक्तक
काव्य की आंतरिक
सौन्दर्य वृद्धि
के मूल कारक हैं
। धर्म और कामतत्त्व
की युगसंधि पर
प्रतिष्ठित प्राकृत
मुक्तक में निहित
रागात्मक अनुभूति
तथा कल्पना की
रमणीयता से वर्ण्य
विषय में भाव माधुर्य
का मोहक विनियोग
हुआ है ।
पार्वती और पशुपति
शीर्षक लेख में
प्रोफेसर गोविन्द
चन्द्र पाण्डे
प्राकृत काव्य
में अभिव्यक्ति
कौशल व अर्थ संप्रेषण
की निगूढ़ता में
उतरकर, टीकाकारों
की व्याख्याओं
का संदर्भ देते
हुए,
काव्य
की सूक्ष्म समझ
की ओर इंगित करते
हैं । उदाहरणों
के माध्यम से हुई
इस व्याख्या में
काव्यास्वाद का
सलीका और काव्य
ध्वनि या काव्य
मर्म को ग्रहण
करने का तरीका
है । काव्य शास्त्रीय
संवाद और विमर्श
को आगे बढ़ाने की
दिशा में भी यह
सार्थक है क्योंकि
स्थापित मान्यताओं
पर प्रश्न उठाकर
यहाँ नये आयाम
जोड़ने का उपक्रम
है । तभी प्रोफेसर
पाण्डे कहते हैं
व्याख्या की परम्परा
कभी समाप्त नहीं
होती ।
गाथा सप्तशती
में उपचार वक्रता
शीर्षक के अन्तर्गत
डॉ हरिशंकर पाण्डेय
ने विषयगत अध्ययन
प्रस्तुत किया
है । भावाभिव्यक्ति
को सशक्त बनाने
में सहायक उपचार
वक्रता एक लाक्षणिक
प्रयोग है, इसके विभिन्न
पक्षों पर प्रकाश
डाला गया है । डॉ. राका जैन ने
गाहासत्तसई और
कालिदास के काव्य
में भाव साम्य
का सोदाहरण विश्लेषण
किया है और डॉ सुदीप
जैन प्राकृत के
महत्वपूर्ण सुभाषित
ग्रंथ वज्जालग्गं
की काव्यात्मक
समीक्षा करते हुए, इस ग्रंथ का
प्रमुख उद्देश्य
प्राकृत भाषा साहित्य
का प्रचार भी मानते
हैं क्योंकि श्रेष्ठ
रचनाओं का संरक्षण
और प्रसार भी इस
अप्रतिम संग्रह
के द्वारा हो सका
है । इस पुस्तक
के अंत में डॉ पुष्पलता
जैन का लेख पालि
प्राकृत अपभ्रंश
गीति काव्य का
हिन्दी काव्य पर
प्रभाव दर्शाता
है । हिन्दी के
प्रथम गीतिकार
विद्यापति से लेकर
समकालीन नवगीतकारों
तक यह प्रभाव कविता
के अनेक कालों, आदोलनों वप्रवृत्तियों
से होकर गुज़रता
है । इससे यह भी
सिद्ध हो जाता
है कि पालि प्राकृत
के गीति मुक्तक
काव्य की अनुगूँज
भारतीय काव्य की
बहुभाषी अजस्रधारा
में आज तक चली आ
रही है ।
समग्र भारतीय
काव्य परम्परा
में पालि प्राकृत
के मुक्तक काव्य
की पहचान और उसके
अवदान का मूल्यांकन
करने की दिशा में, यह ग्रंथ जितना
सार्थक सिद्ध होता
है,
इसका श्रेय
इसमें योग देने
वाले विद्वानों
को जाता है।
भारतीय उच्च अध्ययन
संस्थान ने इस
महत्त्वपूर्ण
कार्य योजना को
संगोष्ठी के माध्यम
से प्रारम्भ करके
इसे पुस्तक रूप
में प्रस्तुत करने
का जो कार्य किया
है,
यह साहित्य
ज्ञान के क्षेत्र
में एक सार्थक
और महत्वपूर्ण
सोपान है। संस्थान
के निदेशक प्रोफेसर
विनोदचन्द्र श्रीवास्तव
के प्रति आभार
व्यक्त करता हूँ
जिन्होंने मुझे
इस पुस्तक के सम्पादन
का दायित्व सौंपा
। इस कार्य में
संस्थान के जा
संपर्क अधिकारी
श्री अशोक शर्मा
के संपर्क सहयोग
के लिए भी कृतज्ञ
हूँ।
अनुक्रम |
||
संदेश |
||
1 |
आमुख |
|
2 |
प्राक्कथन |
|
3 |
पालि और प्राकृत काव्य में प्रगीतत्व की |
1 |
4 |
पालि प्राकृत अपभ्रंश और मुक्तक कविता |
14 |
5 |
पालि गीतिकाव्य के तत्त्व |
25 |
6 |
पालि साहित्य में मुक्तक तथा गेय काव्य |
56 |
7 |
पालि साहित्य में सौन्दर्य सुक्तनिपात |
74 |
8 |
प्राकृत काव्य शैली का दूरगामी प्रभाव |
82 |
9 |
प्राकृत धम्मपद का काव्य सौंदर्य |
91 |
10 |
प्राकृत मुक्तक काव्य परम्परा का लोकप्रिय छंद गाहा |
102 |
11 |
प्राकृत सट्टकों में प्रकृति चित्रण |
115 |
12 |
प्राकृत साहित्य में गीतिकाव्य |
125 |
13 |
पार्वती और पशुपति |
135 |
14 |
गाथा सप्तशती में उपचार वक्रता |
142 |
15 |
गाहासतसई और कालिदास के काव्य में भाव साम्य राका जैन |
150 |
16 |
वज्जालग्गं की काव्यात्मक समीक्षा |
160 |
17 |
पालि प्राकृत अपभ्रंश प्रगीत काव्य का हिन्दी गीतिकाव्य पर प्रभाव |
168 |