आज से प्राय: ४०० वर्ष पहले फलित ज्योतिष के इस अनुपम ग्रंथ की रचना श्री मंत्रेश्वर ने दक्षिण भारत में की थी और अब तक यह ग्रंथ वहीं तक सीमित था । हिन्दी भाषा में व्याख्या-
सहित देवनागरी में मूल श्लोक प्रथम बार प्रकाशित हुए हैं । वृहत्पाराशर, वृहज्जातक, जातकपारिजात, सर्वार्धचिन्तामणि आदि की भांति फलित ज्योतिष का यह अनुपम ग्रंथ है । दक्षिण भारत में प्रचलित फलित ज्योतिष के बहुत-
से नवीन सिद्धान्त इसमें दिए गए हैं, जिनका अध्ययन उत्तर भारत के पंडितों के लिए नवीन होगा, क्योंकि ये सिद्धान्त उत्तर भारत में अब तक संस्कृत ग्रंथों में भी उपलब्ध नहीं थे । श्रीरामानुजकृत फलितज्योतिष ग्रंथ भावार्थरत्नाकर भी हिन्दी में उपलब्ध नहीं है । उसके भी सारभूत फलित ज्योतिष के ४५० योग इस ग्रंथ में दे दिए गए हैं । ज्योतिष के प्रेमियों के लिए इसमें सर्वथा नवीन पाठ्य सामग्री प्रस्तुत है ।
वन्दे वन्दारुमन्दारमिन्टु भूषण नन्दनम् ।
अमन्दानन्दसन्दोह बन्धुरं सिन्धुराननम् ।।
परब्रह्म परमेश्वर की असीम अनुकम्पा से फलित ज्योतिष का यह अनुपम ग्रंथ, हिन्दी भाषा भाषी संसार के दृष्टि पथ में प्रथम बार अवतरित हो रहा है । पहिले यह ग्रन्थ दक्षिण भारतीय लिपि 'ग्रंथ' में ही उपलब्ध था । प्राय: ४० वर्ष पूर्व कलकत्ते से मूल संस्कृत देव- नागरी में प्रकाशित हुआ और यद्यपि तमिल, तेलगू, कन्नड, मलयालम, गुजराती अंगरेज़ी आदि भाषाओं में इसकी टीका उपलब्ध हुईं, किन्तु हिन्दी में इसका अभाव था ।
यह व्याख्या संस्कृत के भाव और अर्थ को प्रकाशित करती है; जन्म कुंडली के द्वादश भावों का अर्थ निरूपण करती है । इसके अतिरिक्त हिन्दी व्याख्या में श्री रामानुज प्रणीत भावार्थ रलाकर नामक फलित ग्रंथ के प्राय: ४५० योग भी हमने दे दिये हैं-इस कारण इसका नाम भावार्थबोधिनी फलदीपिका सार्थक है ।
श्री मंत्रेश्वर का नाम युवावस्था में मार्कण्डेय भट्टाद्रि था । इनका जन्म दक्षिण भारत के नम्बूदरी ब्राह्मण कुल में हुआ । एक मत से इनका जन्म तमिल प्रान्त के शालवीटी स्थान में हुआ । दूसरा मत है कि इनकी जन्म भूमि केरल थी । यह सुकुन्तलाम्बा देवी के भक्त थे । इनके जन्म-काल में भी मतभेद है । कुछ विद्वान् तेरहवीं शताब्दी और कुछ सोलहवी शताब्दी मानते हैं ।
यह अखिल विद्योपार्जन के लिये सुदूर बदरिकाश्रम, हिमालय प्रदेश तथा विद्वज्जनललामभूता मिथिला में बहुत काल तक रहे । न्याय वेदान्त आदि षf दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान् थे और निरन्तर व्रतोपवास-
नियमपूर्वक तपस्या कर देवताराधन में सफल हुए । तब इ नका नाम मत्रेश्वर हुआ । १५० वर्ष की आय में योगक्रिया द्वारा इस ऐहिक शरीर का त्याग किया । अखिल विद्याओं का अध्ययन और तपस्या के कारण इनका ज्योतिष का भी अगाध ज्ञान था और इस फलदीपिका में बहुत-से ज्योतिष के फलादेश प्रकार छने अपूर्व और गंभीर हैं कि पाठक मुग्ध हुए विमा नहीं रह सकते ।
फलदीपिका ग्रंथ फलित ज्योतिष की प्रौढ़ रचना है । हिन्दी व्याख्या के साथ-साथ मूल श्लोक भी दे दिये गये हैं जिससे सहृदय संस्कृत प्रणयी मूल का रसास्वाद कर; मंत्रेश्वर की सुललित पदावली से प्रकर्ष हर्ष का अनुभव कर सकें । ग्रंथ की महत्ता, उपादेयता या बहुविषयकता की व्याख्या करना व्यर्थ है, क्योंकि पुस्तक पाठकों के सत्त्व है ।
आश है अधिकारी वर्ग, ज्योतिष की विविध परीक्षाओं के लिये ओ पाठ्य पुस्तकें निर्धारित की जाती हैं, उनमें इस फलित विषयक अमूल्य ग्रंथ का भी सन्निवेश करेंगे, जिससे विद्यार्थी अपने भावी जीवन में विशेष सफल ज्योतिषी हो सकें । विद्वानों से निवेदन है कि इस के अग्रिम संस्करण के लिये यदि कोई परामर्श देना चाहे तो निम्नलिखित पते से पत्र-व्यवहार करें ।
सारावली में लिखा है :
यदुपचित मन्य जन्मनि शुभाशभं कर्मण: पक्तिम् ।
व्यञ्जयति शास्त्र मेतत्तमसि द्रव्याणि दीप इव । ।
अर्थात् पूर्वजन्म में जो शुभ या अशुभ कर्म जातक ने किये हैं उनका फल, अंधकार में रक्खी हुई वस्तुओं को दी पक की भांति ज्योतिष शास्त्र दिखाता हे । ज्योतिष कल्पद्रुम के तीन स्कन्ध हैं संहिता, सिद्धान्त तथा होरा । होरा के अन्तर्गत जन्म या प्रश्न कुण्डली का फलादेश आता है । उन्हीं फलों को दिखाने के लिये यह रचना फल-दीपिका है ।
प्रथम अध्याय | राशि भेद | 17-29 |
दूसरा अध्याय | ग्रह भेद | 30-53 |
तीसरा अध्याय | वर्ग विभाग | 54-72 |
चौथा अध्याय | ग्रह बल | 73-100 |
पाँचवां अध्याय | कर्माजीव प्रकरण | 101-108 |
छठा अध्याय | योग | 109-162 |
सातवाँ अध्याय | राजयोग | 163-179 |
अठवाँ अध्याय | भावश्रय फल | 180-205 |
नवाँ अध्याय | राशिफल | 206-216 |
दसवाँ अध्याय | कलत्रभाव | 217-223 |
ग्यारहवाँ अध्याय | स्त्रीजातक | 224-230 |
बारहवाँ अध्याय | पुत्र भावफल | 231-249 |
तेरहवाँ अध्याय | आयुर्दांय | 250-264 |
चौदहवाँ अध्याय | रोगनिर्णय | 265-284 |
पन्द्रहवाँ अध्याय | भावचिन्ता | 285-305 |
सोलहवाँ अध्याय | द्वादश भावफल | 306-321 |
सत्रहवाँ अध्याय | निर्याण प्रकरण | 322-334 |
अठारहवाँ-अध्याय | द्विग्रहयोग | 335-345 |
उन्नीसवाँ अध्याय | दशाफल | 384-385 |
बीसवाँ अध्याय | अन्तर्दशाफल | 386-450 |
इक्कीसवाँ अध्याय | प्रत्यन्तर्दशा फल | 451-485 |
बाईसवाँ अध्याय | मिश्रदशा | 486-535 |
तेईसवाँ अध्याय | अष्टकवर्ग | 536-561 |
चौबीसवाँ अध्याय | अष्टकवर्ग फल | 562-599 |
पच्चीसवाँ अध्याय | गुलिकादि उपगह | 600-616 |
छब्बीसवाँ अध्याय | गोचर फल | 617-667 |
सत्ताईसवाँ अध्याय | प्रव्रज्या योग | 668-671 |
अटठाईसवाँ अध्याय | उपसंहार | 674-679 |
आज से प्राय: ४०० वर्ष पहले फलित ज्योतिष के इस अनुपम ग्रंथ की रचना श्री मंत्रेश्वर ने दक्षिण भारत में की थी और अब तक यह ग्रंथ वहीं तक सीमित था । हिन्दी भाषा में व्याख्या-
सहित देवनागरी में मूल श्लोक प्रथम बार प्रकाशित हुए हैं । वृहत्पाराशर, वृहज्जातक, जातकपारिजात, सर्वार्धचिन्तामणि आदि की भांति फलित ज्योतिष का यह अनुपम ग्रंथ है । दक्षिण भारत में प्रचलित फलित ज्योतिष के बहुत-
से नवीन सिद्धान्त इसमें दिए गए हैं, जिनका अध्ययन उत्तर भारत के पंडितों के लिए नवीन होगा, क्योंकि ये सिद्धान्त उत्तर भारत में अब तक संस्कृत ग्रंथों में भी उपलब्ध नहीं थे । श्रीरामानुजकृत फलितज्योतिष ग्रंथ भावार्थरत्नाकर भी हिन्दी में उपलब्ध नहीं है । उसके भी सारभूत फलित ज्योतिष के ४५० योग इस ग्रंथ में दे दिए गए हैं । ज्योतिष के प्रेमियों के लिए इसमें सर्वथा नवीन पाठ्य सामग्री प्रस्तुत है ।
वन्दे वन्दारुमन्दारमिन्टु भूषण नन्दनम् ।
अमन्दानन्दसन्दोह बन्धुरं सिन्धुराननम् ।।
परब्रह्म परमेश्वर की असीम अनुकम्पा से फलित ज्योतिष का यह अनुपम ग्रंथ, हिन्दी भाषा भाषी संसार के दृष्टि पथ में प्रथम बार अवतरित हो रहा है । पहिले यह ग्रन्थ दक्षिण भारतीय लिपि 'ग्रंथ' में ही उपलब्ध था । प्राय: ४० वर्ष पूर्व कलकत्ते से मूल संस्कृत देव- नागरी में प्रकाशित हुआ और यद्यपि तमिल, तेलगू, कन्नड, मलयालम, गुजराती अंगरेज़ी आदि भाषाओं में इसकी टीका उपलब्ध हुईं, किन्तु हिन्दी में इसका अभाव था ।
यह व्याख्या संस्कृत के भाव और अर्थ को प्रकाशित करती है; जन्म कुंडली के द्वादश भावों का अर्थ निरूपण करती है । इसके अतिरिक्त हिन्दी व्याख्या में श्री रामानुज प्रणीत भावार्थ रलाकर नामक फलित ग्रंथ के प्राय: ४५० योग भी हमने दे दिये हैं-इस कारण इसका नाम भावार्थबोधिनी फलदीपिका सार्थक है ।
श्री मंत्रेश्वर का नाम युवावस्था में मार्कण्डेय भट्टाद्रि था । इनका जन्म दक्षिण भारत के नम्बूदरी ब्राह्मण कुल में हुआ । एक मत से इनका जन्म तमिल प्रान्त के शालवीटी स्थान में हुआ । दूसरा मत है कि इनकी जन्म भूमि केरल थी । यह सुकुन्तलाम्बा देवी के भक्त थे । इनके जन्म-काल में भी मतभेद है । कुछ विद्वान् तेरहवीं शताब्दी और कुछ सोलहवी शताब्दी मानते हैं ।
यह अखिल विद्योपार्जन के लिये सुदूर बदरिकाश्रम, हिमालय प्रदेश तथा विद्वज्जनललामभूता मिथिला में बहुत काल तक रहे । न्याय वेदान्त आदि षf दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान् थे और निरन्तर व्रतोपवास-
नियमपूर्वक तपस्या कर देवताराधन में सफल हुए । तब इ नका नाम मत्रेश्वर हुआ । १५० वर्ष की आय में योगक्रिया द्वारा इस ऐहिक शरीर का त्याग किया । अखिल विद्याओं का अध्ययन और तपस्या के कारण इनका ज्योतिष का भी अगाध ज्ञान था और इस फलदीपिका में बहुत-से ज्योतिष के फलादेश प्रकार छने अपूर्व और गंभीर हैं कि पाठक मुग्ध हुए विमा नहीं रह सकते ।
फलदीपिका ग्रंथ फलित ज्योतिष की प्रौढ़ रचना है । हिन्दी व्याख्या के साथ-साथ मूल श्लोक भी दे दिये गये हैं जिससे सहृदय संस्कृत प्रणयी मूल का रसास्वाद कर; मंत्रेश्वर की सुललित पदावली से प्रकर्ष हर्ष का अनुभव कर सकें । ग्रंथ की महत्ता, उपादेयता या बहुविषयकता की व्याख्या करना व्यर्थ है, क्योंकि पुस्तक पाठकों के सत्त्व है ।
आश है अधिकारी वर्ग, ज्योतिष की विविध परीक्षाओं के लिये ओ पाठ्य पुस्तकें निर्धारित की जाती हैं, उनमें इस फलित विषयक अमूल्य ग्रंथ का भी सन्निवेश करेंगे, जिससे विद्यार्थी अपने भावी जीवन में विशेष सफल ज्योतिषी हो सकें । विद्वानों से निवेदन है कि इस के अग्रिम संस्करण के लिये यदि कोई परामर्श देना चाहे तो निम्नलिखित पते से पत्र-व्यवहार करें ।
सारावली में लिखा है :
यदुपचित मन्य जन्मनि शुभाशभं कर्मण: पक्तिम् ।
व्यञ्जयति शास्त्र मेतत्तमसि द्रव्याणि दीप इव । ।
अर्थात् पूर्वजन्म में जो शुभ या अशुभ कर्म जातक ने किये हैं उनका फल, अंधकार में रक्खी हुई वस्तुओं को दी पक की भांति ज्योतिष शास्त्र दिखाता हे । ज्योतिष कल्पद्रुम के तीन स्कन्ध हैं संहिता, सिद्धान्त तथा होरा । होरा के अन्तर्गत जन्म या प्रश्न कुण्डली का फलादेश आता है । उन्हीं फलों को दिखाने के लिये यह रचना फल-दीपिका है ।
प्रथम अध्याय | राशि भेद | 17-29 |
दूसरा अध्याय | ग्रह भेद | 30-53 |
तीसरा अध्याय | वर्ग विभाग | 54-72 |
चौथा अध्याय | ग्रह बल | 73-100 |
पाँचवां अध्याय | कर्माजीव प्रकरण | 101-108 |
छठा अध्याय | योग | 109-162 |
सातवाँ अध्याय | राजयोग | 163-179 |
अठवाँ अध्याय | भावश्रय फल | 180-205 |
नवाँ अध्याय | राशिफल | 206-216 |
दसवाँ अध्याय | कलत्रभाव | 217-223 |
ग्यारहवाँ अध्याय | स्त्रीजातक | 224-230 |
बारहवाँ अध्याय | पुत्र भावफल | 231-249 |
तेरहवाँ अध्याय | आयुर्दांय | 250-264 |
चौदहवाँ अध्याय | रोगनिर्णय | 265-284 |
पन्द्रहवाँ अध्याय | भावचिन्ता | 285-305 |
सोलहवाँ अध्याय | द्वादश भावफल | 306-321 |
सत्रहवाँ अध्याय | निर्याण प्रकरण | 322-334 |
अठारहवाँ-अध्याय | द्विग्रहयोग | 335-345 |
उन्नीसवाँ अध्याय | दशाफल | 384-385 |
बीसवाँ अध्याय | अन्तर्दशाफल | 386-450 |
इक्कीसवाँ अध्याय | प्रत्यन्तर्दशा फल | 451-485 |
बाईसवाँ अध्याय | मिश्रदशा | 486-535 |
तेईसवाँ अध्याय | अष्टकवर्ग | 536-561 |
चौबीसवाँ अध्याय | अष्टकवर्ग फल | 562-599 |
पच्चीसवाँ अध्याय | गुलिकादि उपगह | 600-616 |
छब्बीसवाँ अध्याय | गोचर फल | 617-667 |
सत्ताईसवाँ अध्याय | प्रव्रज्या योग | 668-671 |
अटठाईसवाँ अध्याय | उपसंहार | 674-679 |