प्रस्तावना
वैदिक यज्ञों के प्रतिपादक कल्ला एवं आरण्यक ग्रन्थ; आत्मा एवं परमात्मा-विषयक अलौकिक सिद्धान्तों के प्रतिष्ठापक उपनिषद् ग्रन्थ; सामाजिक रीतियों और व्यवस्थाओं पर अकुंठित निर्णय देने वाले श्रौत, गृह्य तथा धर्मसूत्र; भाषा-विज्ञान के प्रतिपादक शिक्षा, व्याकरण एवं निरुक्त
तथा अनेक भारतीय दर्शन-इन सभी शाखों का ग्राम वैदिक संहिताओं से हुआ है। यह सब कुछ होते हुए भी यह जानकर आश्वर्य होता है कि इन वैदिक संहिताओं का अद्यावधि कोई सर्व-सम्मत व्याख्यान प्रस्तुत नहीं हुआ है। ब्राह्माण-ग्रन्थों में ही इन फक्-रत्नों के अर्थ को जानने का कार्य प्रारम्भ हो गया था ओर आज तक यह प्रयत्न अविरल गति से चल रहा है। बेद भारोपीय परिवार के प्राचीनतम उपलब्ध ग्रन्थ है । मैक्समूलर प्रवृति अधिकतर पाश्चत्य विद्वानों ने इनका समय 1000 ई० पू० कं लगभग माना है। यह सत्य है कि इतने प्राचीन समय में रचित ग्रन्थ का अर्थ समझना हम लोगों के लिए अत्यन्त कठिन है क्योंकि नाश की कठिनता और भावों की गम्भीरता पग-पग पर हमारे मार्ग में बाधा उपस्थित करती है। पर यह कह कर हम अपना पीछा नहीं छुड़ा सकते। आज से 2700 वर्ष पहले सप्तम शतक ई० पू० में यास्काचार्य के सामने भी बैदिक व्याख्यान की ऐसी ही समस्या उपस्थित थी । यास्क ने कम से कम सत्रह पूर्वर्त्ती विद्धानों को उद्घृत किया है जिनके विचार बहुधा मेल नहीं खाते। इनके अतिरिक्त उन्होने स्थल-स्थल पर ऐतिहासिक, याज्ञिक, नैरुक्त, नैदान, आधिदैविक, आध्यात्मिक आदि अनेक व्याख्या-पद्धतियों को प्रस्तुत किया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि यास्क के समय मी वेदार्थ के सम्बन्ध में कोई अविच्छित्र परम्परा उपलब्ध नहीं थी। कतिपय विद्वानों का तो यह मत था कि मन्त्रों का कोई अर्थ है ही नहीं क्योंकि स्थान-स्थान पर मन्त्र अस्पष्ट, निरर्थक एवं परस्पर-विरोधी है। ऐसे ही विद्वानों में एक कौत्स थे जिनके मत को यास्क ने विस्तारपूर्वक प्रस्तुत किया है। यास्क ने अनेक युक्तियों के द्वारा कौत्स के पूर्वपक्ष का खण्डन करके अन्त में निर्दिष्ट किया है कि यह स्थाणुका दोष नहीं कि अन्धा इसे नहीं देखता, यह तो पुरुष का अपराध है। मन्त्र सार्थक हैं पर उनको समझने के लिए आवश्यकता है विवेक एवं परिश्रम की।
विषय-सूची |
||
1 |
मंगलाचरण |
1 |
2 |
ऋग्वेद का अभ्यर्हितत्व |
2 |
3 |
यजुर्वेद के प्रथम व्याख्यान का कारण |
4 |
4 |
वेद का अस्तित्व नहीं है |
8 |
5 |
वेद का अस्तित्व है |
11 |
6 |
मन्त्रभाग का प्रामाण्य नहीं है |
12 |
7 |
मन्त्रभाग का प्रामाण्य है |
14 |
8 |
मन्त्रों में अर्थबोधकता नहीं है |
16 |
9 |
मन्त्रों में अर्थबोधकता है |
21 |
10 |
ब्राह्मण (विधिभाग) का प्रामाण्य नहीं है |
33 |
11 |
ब्राह्मण (विधिभाग) का प्रामाण्य नहीं है |
36 |
12 |
ब्राह्माण (अर्थवादभाग) का प्रामाण्य नहीं है |
38 |
13 |
ब्राह्माण (अर्थवादभाग) का प्रामाण्य है |
43 |
14 |
वेद पौरुषेय है |
57 |
15 |
वेद अपौरुषेय है |
62 |
16 |
मन्त्र और ब्राह्माण का लक्षण नहीं है |
62 |
17 |
अंक, साम और यजु: का लक्षण नहीं है |
69 |
18 |
अंक, साम और यजु: का लक्षण है |
71 |
19 |
वेद का अध्ययन |
71 |
20 |
अध्ययन अदृष्ट फल है के लिए है |
79 |
21 |
अध्ययन का दृष्ट फल है |
81 |
22 |
अध्ययन का क्षेत्र अर्थ-ज्ञान पर्यन्त है |
88 |
23 |
अध्ययन का क्षेत्र अक्षरप्राप्ति तक ही सीमित है |
92 |
24 |
वेदार्थज्ञान की प्रशंसा तथा अज्ञान की निन्दा |
102 |
25 |
अनुबन्ध-चतुष्टय का निरूपण |
113 |
26 |
वेद के अंक |
116 |
27 |
शिक्षा |
117 |
28 |
कल्प |
119 |
29 |
व्याकरण |
121 |
30 |
निरुक्त |
130 |
31 |
छन्द |
134 |
32 |
ज्योतिष |
135 |
प्रस्तावना
वैदिक यज्ञों के प्रतिपादक कल्ला एवं आरण्यक ग्रन्थ; आत्मा एवं परमात्मा-विषयक अलौकिक सिद्धान्तों के प्रतिष्ठापक उपनिषद् ग्रन्थ; सामाजिक रीतियों और व्यवस्थाओं पर अकुंठित निर्णय देने वाले श्रौत, गृह्य तथा धर्मसूत्र; भाषा-विज्ञान के प्रतिपादक शिक्षा, व्याकरण एवं निरुक्त
तथा अनेक भारतीय दर्शन-इन सभी शाखों का ग्राम वैदिक संहिताओं से हुआ है। यह सब कुछ होते हुए भी यह जानकर आश्वर्य होता है कि इन वैदिक संहिताओं का अद्यावधि कोई सर्व-सम्मत व्याख्यान प्रस्तुत नहीं हुआ है। ब्राह्माण-ग्रन्थों में ही इन फक्-रत्नों के अर्थ को जानने का कार्य प्रारम्भ हो गया था ओर आज तक यह प्रयत्न अविरल गति से चल रहा है। बेद भारोपीय परिवार के प्राचीनतम उपलब्ध ग्रन्थ है । मैक्समूलर प्रवृति अधिकतर पाश्चत्य विद्वानों ने इनका समय 1000 ई० पू० कं लगभग माना है। यह सत्य है कि इतने प्राचीन समय में रचित ग्रन्थ का अर्थ समझना हम लोगों के लिए अत्यन्त कठिन है क्योंकि नाश की कठिनता और भावों की गम्भीरता पग-पग पर हमारे मार्ग में बाधा उपस्थित करती है। पर यह कह कर हम अपना पीछा नहीं छुड़ा सकते। आज से 2700 वर्ष पहले सप्तम शतक ई० पू० में यास्काचार्य के सामने भी बैदिक व्याख्यान की ऐसी ही समस्या उपस्थित थी । यास्क ने कम से कम सत्रह पूर्वर्त्ती विद्धानों को उद्घृत किया है जिनके विचार बहुधा मेल नहीं खाते। इनके अतिरिक्त उन्होने स्थल-स्थल पर ऐतिहासिक, याज्ञिक, नैरुक्त, नैदान, आधिदैविक, आध्यात्मिक आदि अनेक व्याख्या-पद्धतियों को प्रस्तुत किया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि यास्क के समय मी वेदार्थ के सम्बन्ध में कोई अविच्छित्र परम्परा उपलब्ध नहीं थी। कतिपय विद्वानों का तो यह मत था कि मन्त्रों का कोई अर्थ है ही नहीं क्योंकि स्थान-स्थान पर मन्त्र अस्पष्ट, निरर्थक एवं परस्पर-विरोधी है। ऐसे ही विद्वानों में एक कौत्स थे जिनके मत को यास्क ने विस्तारपूर्वक प्रस्तुत किया है। यास्क ने अनेक युक्तियों के द्वारा कौत्स के पूर्वपक्ष का खण्डन करके अन्त में निर्दिष्ट किया है कि यह स्थाणुका दोष नहीं कि अन्धा इसे नहीं देखता, यह तो पुरुष का अपराध है। मन्त्र सार्थक हैं पर उनको समझने के लिए आवश्यकता है विवेक एवं परिश्रम की।
विषय-सूची |
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1 |
मंगलाचरण |
1 |
2 |
ऋग्वेद का अभ्यर्हितत्व |
2 |
3 |
यजुर्वेद के प्रथम व्याख्यान का कारण |
4 |
4 |
वेद का अस्तित्व नहीं है |
8 |
5 |
वेद का अस्तित्व है |
11 |
6 |
मन्त्रभाग का प्रामाण्य नहीं है |
12 |
7 |
मन्त्रभाग का प्रामाण्य है |
14 |
8 |
मन्त्रों में अर्थबोधकता नहीं है |
16 |
9 |
मन्त्रों में अर्थबोधकता है |
21 |
10 |
ब्राह्मण (विधिभाग) का प्रामाण्य नहीं है |
33 |
11 |
ब्राह्मण (विधिभाग) का प्रामाण्य नहीं है |
36 |
12 |
ब्राह्माण (अर्थवादभाग) का प्रामाण्य नहीं है |
38 |
13 |
ब्राह्माण (अर्थवादभाग) का प्रामाण्य है |
43 |
14 |
वेद पौरुषेय है |
57 |
15 |
वेद अपौरुषेय है |
62 |
16 |
मन्त्र और ब्राह्माण का लक्षण नहीं है |
62 |
17 |
अंक, साम और यजु: का लक्षण नहीं है |
69 |
18 |
अंक, साम और यजु: का लक्षण है |
71 |
19 |
वेद का अध्ययन |
71 |
20 |
अध्ययन अदृष्ट फल है के लिए है |
79 |
21 |
अध्ययन का दृष्ट फल है |
81 |
22 |
अध्ययन का क्षेत्र अर्थ-ज्ञान पर्यन्त है |
88 |
23 |
अध्ययन का क्षेत्र अक्षरप्राप्ति तक ही सीमित है |
92 |
24 |
वेदार्थज्ञान की प्रशंसा तथा अज्ञान की निन्दा |
102 |
25 |
अनुबन्ध-चतुष्टय का निरूपण |
113 |
26 |
वेद के अंक |
116 |
27 |
शिक्षा |
117 |
28 |
कल्प |
119 |
29 |
व्याकरण |
121 |
30 |
निरुक्त |
130 |
31 |
छन्द |
134 |
32 |
ज्योतिष |
135 |