लेखक परिचय
डॉ जयराम मिश्र
जन्म - सन् 1915, मदरा मुकुन्दपुर, जिला इलाहाबाद में । पिता एवं आध्यात्मिक गुरुआत्मज्ञ विभूति पं रामचन्द्र मिश्र ।
शिक्षा - एमए, एमएड, पीएचडी, उपाधियाँ प्राप्त कीं । हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी के साथ-साथ बंगला और पंजाबी भाषा-साहित्य का गहन अध्ययन किया तथा उनके अनेक ग्रंथों का हिन्दी अनुवाद किया ।
गतिविधियाँ - युवावस्था में स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय रहे तथा सन् 42 के आन्दोलन में भाग लेने पर राजद्रोह का मुकदमा चला और छ: वर्ष का कारावास दण्ड मिला । जेल में रहकर आध्यात्मिक ग्रंथों-गीता, उपनिषद, ब्रह्मसूत्र आदि का गहन चिंतन-मनन किया फलत: दिव्य आध्यात्मिक अनुभतियाँ प्राप्त की ।
कृतियाँ - इलाहाबाद डिग्री कालेज में अध्यापन करते हुए अनेक ग्रंथों का प्रणयन किया ।'श्रीगुरु ग्रंथ-दर्शन' तथा 'नानक वाणी' कृतियों ने हिन्दी तथा पंजाबी में स्थायी प्रतिष्ठा प्रदान की । लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद से प्रकाशित जीवन-ग्रंथों, जैसे - गुरु नानक, स्वामी रामतीर्थ, आदि गुरु शंकराचार्य, मर्यादापुरुषोत्तम भगवान राम, लीलापुरुषोत्तम भगवान कृष्ण, शक्तिपुंज हनुमान ने अपनी कथात्मक ललित शैली, सहज भाषा-प्रवाह तथा स्वयं एक संत की लेखनी से प्रणीत होने के कारण अत्यधिक लोकप्रियता प्राप्त की ।
नैष्ठिक ब्रह्मचारी डॉ मिश्र मूलत: आत्मस्वरुप में स्थित उच्चकोटि के संत और धार्मिक विभूति थे । एषणाहीन, निरन्तर नामजप एवं नित्य चैतन्यामृत में लीन, परम लक्ष्य संकल्पित उनका जीवन आज के युग में एक दुर्लभ उदाहरण है ।
निधन - सन् 1987 में ।
प्राक्कथन
मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम ने कहा है-लोक पर जब कोई विपत्ति आती है तब वह त्राण पाने के लिये मेरी अभ्यर्थना करता है परंतु जब मुझ पर कोई संकट आता है तब मैं उसके निवारणार्थ पवनपुत्र का स्मरण करता हूँ । अवतार श्रीराम का यह कथन हनुमान् जी के महान् व्यक्तित्व का बहुत सुन्दर प्रकाशन कर देता है । श्रीराम का कितना अनुग्रह है उन पर कि वे अपने लौकिक जीवन के संकट-मोचन के श्रेय का सौभाग्य सदैव उन्हीं को प्रदान करते हैं और कैसे शक्तिपुंज हैं हनुमान् जो श्रीराम तक के कष्ट का तत्काल निवारण कर सकते हैं । भगवान् श्रीराम के प्रति अपनी अपूर्व, अद्भुत, अप्रतिम, एकांत भक्ति के कारण अन्य की इसी प्रकार की भक्ति का आलंबन बन जाने वाला हनुमान् जैसा कोई अन्य उदाहरण विश्व में नहीं है । यही कारण है कि संस्तुत से लेकर समस्त मध्यकालीन और आधुनिक भारतीय भाषाओं में श्रीहनुमान् के परम पावन चरित्र का गान किया गया है और उनके मंदिर भारत के प्रत्येक कोने में पाये जाते हैं ।
श्री हनुमान् अजर-अमर है; अपने प्रभु के वरदान से कल्पांत तक इस पृथ्वी परम् निवास करेंगे । जहाँ भी राम की कथा होती है, मान्यता है कि वहाँ हनुमान जी नेत्रों में प्रेमाश्रु भरे, श्रद्धा से हाथ जोड़े, उपस्थित रहते हैं । शंकर के अवतार हनुमान् भक्त पर शीघ्र और सदैव कृपा करने वाले हैं । श्रीराम भक्त को राम का अनुग्रह प्राप्त कराना उनका अति प्रिय कर्म है, इसमें वह परम आनन्द पाते हैं ।
आघुनिक युग के संत-मनीषी श्रीहनुमान् की भक्ति, शक्ति, लान, विनय, त्याग, औदार्य, बुद्धिमत्ता आदि से अत्यधिक प्रेरित प्रभावित रहे हैं । श्रीरामकृष्ण परमहंस हनुमान्जी की नाम-जप-निष्ठा का बराबर उदाहरण देते थे । भक्तों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था- ' 'मन के गुण से हनुमान जी समुद्र लाँघ गये । हनुमान जी का सहज विश्वास था, मैं श्रीराम का दास हूँ और श्रीराम नाम जपता हूँ अत: मैं क्या नहीं कर सकता?'' स्वामी विवेकानन्द ने भी गरजते हुए कहा था-' 'देश के कोने-कोने में महाबली श्री हनुमान जी की पूजा प्रचलित करो । दुर्बल जाति के सामने महावीर का आदर्श उपस्थित करो । देह में बल नहीं, हृदय में साहस नहीं, तो फिर क्या होगा इस जड़पिंड को धारण करने से? मेरी प्रबल आकांक्षा है कि घर-घर में बजरंगबली श्रीहनुमान जी की पूजा और उपासना हो ।' ' महात्मा गांधी, महामना मालवीय जी आदि ने भी ऐसे ही उद्गार हनुमानजी के प्रति व्यक्त किये हैं ।
इस पुस्तक की रचना में वाल्मीकि रामायण, अध्यात्म रामायण तथा आनंद रामायण से विशेष सहायता ली गयी है । स्कंदपुराण, पद्मपुराणादि एवं महाभारत (वनपर्व) भी रचना में सहायक सिद्ध हुए हैं । गोस्वामी तुलसीदास की कृतियों-रामचरितमानस, विनयपत्रिका, गीतावली, कवितावली एवं कंबन रचित 'कंब रामायण' (तमिल रचना) से भी यत्र-तत्र सहायता ग्रहण की गई है । इनके अतिरिक्त भी सुदर्शन सिंह 'चक' रचित 'आजनेय' कल्याण पत्रिका के 'हनुमानांक' (ई) तथा डा गोविन्दचन्द्र राय की पुस्तक 'हनुमान् के देवत्व और शुतइr का विकास' आदि से भी यथावसर सामग्री प्राप्त की गयी है ।
सामग्री-संकलन में मेरे अनुज चि बलराम मिश्र एवं डी गंगासागर तिवारी ने पर्याप्त मदद की है; ये दोनों व्यक्ति मेरे स्नेह और आशीर्वाद के पात्र हैं ।
पुस्तक-लेखन काल में पिता ब्रह्मलीन श्री रामचंद्र मिश्र की पावन स्मृति निरंतर शक्ति प्रदान करती रही । मेरे अग्रज श्री परमात्माराम मिश्र एवं 'अनुज श्री मृगुराम मिश्र मुझे निरंतर पुस्तक लेखन की प्रेरणा देते रहे हैं; अग्रज मेरी श्रद्धा एवं अनुज लेह के भाजन हैं । मेरे भतीजों-चिअव्यक्तराम, सर्वेश्वरराम, योगेश्वरराम एवं अव्यक्तराम की सहधर्मिणी''श्रीमती उषा ने लेखनकार्य के समय मेरी भलीभाँति सेवा-सुश्रषा की है; इन सभी को मेरा हार्दिक आशीष । मेरे अन्य भतीजे डा विभुराम मिश्र ने अत्यधिक श्रमपूर्वक पाण्डुलिपि को संशोधित किया है; उसे मेरा कोटिशः आशीष । पुस्तक लिखाने का श्रेय लोकभारती प्रकाशन के व्यवस्थापकों को है, जिनका आग्रह मैं टाल न सका ।
इस पुस्तक के लेखन में मेरी वृत्ति निरंतर भगवन्मयी बनी रही है । मैंने अनुभव किया कि भगवच्चरित की अपेक्षा भक्तचरित का लेखन कठिन है, फिर भी पूर्ण संतोष है कि मैंने निष्ठापूर्वक यह कार्य किया है । मुझे द्दढ़ विश्वास है कि पाठकगण हनुमान्जी के परमोज्जवल लोकोत्तर चरित्र से निश्चय ही शक्ति और प्रेरणा ग्रहण करेंगे ।
अनुक्रम |
||
1 |
उत्पत्ति, बालकीड़ा, वरप्राप्ति |
1 |
2 |
सुग्रीव के सहायक |
10 |
3 |
हनुमान्जी की सहमति से सुग्रीव का राज्याभिषेक |
19 |
4 |
सीताजी की खोज में |
29 |
5 |
समुद्र लंघन |
41 |
6 |
लंका-प्रवेश; |
49 |
7 |
सीताजी का दर्शन |
59 |
8 |
अशोकवाटिका-विध्वंस |
70 |
9 |
लंका दहन |
80 |
10 |
लंका से वापसी |
63 |
11 |
लंका-प्रयाण |
104 |
12 |
सेतु निर्माण में हनुमान्जी का योगदान |
111 |
13 |
समरांगण में श्रीहनुमान् |
118 |
14 |
मातृ-चरणों में |
141 |
15 |
हनुमदीश्वर |
146 |
16 |
जननी अंजना का दूध |
153 |
17 |
श्री रामदूत |
158 |
18 |
महिमामय हनुमान् |
164 |
19 |
भावुक भक्त |
170 |
20 |
श्रीहनुमान् को तत्वोपदेश |
181 |
21 |
श्रीरामाश्वमेध के अश्व के साथ |
186 |
22 |
रुद्ररूप में श्रीहनुमान् |
204 |
23 |
श्रीहनुमान्-गर्वहरप्रा क्रे निमिल |
210 |
24 |
व्यक्तित्व एवं दर्शन |
219 |
लेखक परिचय
डॉ जयराम मिश्र
जन्म - सन् 1915, मदरा मुकुन्दपुर, जिला इलाहाबाद में । पिता एवं आध्यात्मिक गुरुआत्मज्ञ विभूति पं रामचन्द्र मिश्र ।
शिक्षा - एमए, एमएड, पीएचडी, उपाधियाँ प्राप्त कीं । हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी के साथ-साथ बंगला और पंजाबी भाषा-साहित्य का गहन अध्ययन किया तथा उनके अनेक ग्रंथों का हिन्दी अनुवाद किया ।
गतिविधियाँ - युवावस्था में स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय रहे तथा सन् 42 के आन्दोलन में भाग लेने पर राजद्रोह का मुकदमा चला और छ: वर्ष का कारावास दण्ड मिला । जेल में रहकर आध्यात्मिक ग्रंथों-गीता, उपनिषद, ब्रह्मसूत्र आदि का गहन चिंतन-मनन किया फलत: दिव्य आध्यात्मिक अनुभतियाँ प्राप्त की ।
कृतियाँ - इलाहाबाद डिग्री कालेज में अध्यापन करते हुए अनेक ग्रंथों का प्रणयन किया ।'श्रीगुरु ग्रंथ-दर्शन' तथा 'नानक वाणी' कृतियों ने हिन्दी तथा पंजाबी में स्थायी प्रतिष्ठा प्रदान की । लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद से प्रकाशित जीवन-ग्रंथों, जैसे - गुरु नानक, स्वामी रामतीर्थ, आदि गुरु शंकराचार्य, मर्यादापुरुषोत्तम भगवान राम, लीलापुरुषोत्तम भगवान कृष्ण, शक्तिपुंज हनुमान ने अपनी कथात्मक ललित शैली, सहज भाषा-प्रवाह तथा स्वयं एक संत की लेखनी से प्रणीत होने के कारण अत्यधिक लोकप्रियता प्राप्त की ।
नैष्ठिक ब्रह्मचारी डॉ मिश्र मूलत: आत्मस्वरुप में स्थित उच्चकोटि के संत और धार्मिक विभूति थे । एषणाहीन, निरन्तर नामजप एवं नित्य चैतन्यामृत में लीन, परम लक्ष्य संकल्पित उनका जीवन आज के युग में एक दुर्लभ उदाहरण है ।
निधन - सन् 1987 में ।
प्राक्कथन
मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम ने कहा है-लोक पर जब कोई विपत्ति आती है तब वह त्राण पाने के लिये मेरी अभ्यर्थना करता है परंतु जब मुझ पर कोई संकट आता है तब मैं उसके निवारणार्थ पवनपुत्र का स्मरण करता हूँ । अवतार श्रीराम का यह कथन हनुमान् जी के महान् व्यक्तित्व का बहुत सुन्दर प्रकाशन कर देता है । श्रीराम का कितना अनुग्रह है उन पर कि वे अपने लौकिक जीवन के संकट-मोचन के श्रेय का सौभाग्य सदैव उन्हीं को प्रदान करते हैं और कैसे शक्तिपुंज हैं हनुमान् जो श्रीराम तक के कष्ट का तत्काल निवारण कर सकते हैं । भगवान् श्रीराम के प्रति अपनी अपूर्व, अद्भुत, अप्रतिम, एकांत भक्ति के कारण अन्य की इसी प्रकार की भक्ति का आलंबन बन जाने वाला हनुमान् जैसा कोई अन्य उदाहरण विश्व में नहीं है । यही कारण है कि संस्तुत से लेकर समस्त मध्यकालीन और आधुनिक भारतीय भाषाओं में श्रीहनुमान् के परम पावन चरित्र का गान किया गया है और उनके मंदिर भारत के प्रत्येक कोने में पाये जाते हैं ।
श्री हनुमान् अजर-अमर है; अपने प्रभु के वरदान से कल्पांत तक इस पृथ्वी परम् निवास करेंगे । जहाँ भी राम की कथा होती है, मान्यता है कि वहाँ हनुमान जी नेत्रों में प्रेमाश्रु भरे, श्रद्धा से हाथ जोड़े, उपस्थित रहते हैं । शंकर के अवतार हनुमान् भक्त पर शीघ्र और सदैव कृपा करने वाले हैं । श्रीराम भक्त को राम का अनुग्रह प्राप्त कराना उनका अति प्रिय कर्म है, इसमें वह परम आनन्द पाते हैं ।
आघुनिक युग के संत-मनीषी श्रीहनुमान् की भक्ति, शक्ति, लान, विनय, त्याग, औदार्य, बुद्धिमत्ता आदि से अत्यधिक प्रेरित प्रभावित रहे हैं । श्रीरामकृष्ण परमहंस हनुमान्जी की नाम-जप-निष्ठा का बराबर उदाहरण देते थे । भक्तों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था- ' 'मन के गुण से हनुमान जी समुद्र लाँघ गये । हनुमान जी का सहज विश्वास था, मैं श्रीराम का दास हूँ और श्रीराम नाम जपता हूँ अत: मैं क्या नहीं कर सकता?'' स्वामी विवेकानन्द ने भी गरजते हुए कहा था-' 'देश के कोने-कोने में महाबली श्री हनुमान जी की पूजा प्रचलित करो । दुर्बल जाति के सामने महावीर का आदर्श उपस्थित करो । देह में बल नहीं, हृदय में साहस नहीं, तो फिर क्या होगा इस जड़पिंड को धारण करने से? मेरी प्रबल आकांक्षा है कि घर-घर में बजरंगबली श्रीहनुमान जी की पूजा और उपासना हो ।' ' महात्मा गांधी, महामना मालवीय जी आदि ने भी ऐसे ही उद्गार हनुमानजी के प्रति व्यक्त किये हैं ।
इस पुस्तक की रचना में वाल्मीकि रामायण, अध्यात्म रामायण तथा आनंद रामायण से विशेष सहायता ली गयी है । स्कंदपुराण, पद्मपुराणादि एवं महाभारत (वनपर्व) भी रचना में सहायक सिद्ध हुए हैं । गोस्वामी तुलसीदास की कृतियों-रामचरितमानस, विनयपत्रिका, गीतावली, कवितावली एवं कंबन रचित 'कंब रामायण' (तमिल रचना) से भी यत्र-तत्र सहायता ग्रहण की गई है । इनके अतिरिक्त भी सुदर्शन सिंह 'चक' रचित 'आजनेय' कल्याण पत्रिका के 'हनुमानांक' (ई) तथा डा गोविन्दचन्द्र राय की पुस्तक 'हनुमान् के देवत्व और शुतइr का विकास' आदि से भी यथावसर सामग्री प्राप्त की गयी है ।
सामग्री-संकलन में मेरे अनुज चि बलराम मिश्र एवं डी गंगासागर तिवारी ने पर्याप्त मदद की है; ये दोनों व्यक्ति मेरे स्नेह और आशीर्वाद के पात्र हैं ।
पुस्तक-लेखन काल में पिता ब्रह्मलीन श्री रामचंद्र मिश्र की पावन स्मृति निरंतर शक्ति प्रदान करती रही । मेरे अग्रज श्री परमात्माराम मिश्र एवं 'अनुज श्री मृगुराम मिश्र मुझे निरंतर पुस्तक लेखन की प्रेरणा देते रहे हैं; अग्रज मेरी श्रद्धा एवं अनुज लेह के भाजन हैं । मेरे भतीजों-चिअव्यक्तराम, सर्वेश्वरराम, योगेश्वरराम एवं अव्यक्तराम की सहधर्मिणी''श्रीमती उषा ने लेखनकार्य के समय मेरी भलीभाँति सेवा-सुश्रषा की है; इन सभी को मेरा हार्दिक आशीष । मेरे अन्य भतीजे डा विभुराम मिश्र ने अत्यधिक श्रमपूर्वक पाण्डुलिपि को संशोधित किया है; उसे मेरा कोटिशः आशीष । पुस्तक लिखाने का श्रेय लोकभारती प्रकाशन के व्यवस्थापकों को है, जिनका आग्रह मैं टाल न सका ।
इस पुस्तक के लेखन में मेरी वृत्ति निरंतर भगवन्मयी बनी रही है । मैंने अनुभव किया कि भगवच्चरित की अपेक्षा भक्तचरित का लेखन कठिन है, फिर भी पूर्ण संतोष है कि मैंने निष्ठापूर्वक यह कार्य किया है । मुझे द्दढ़ विश्वास है कि पाठकगण हनुमान्जी के परमोज्जवल लोकोत्तर चरित्र से निश्चय ही शक्ति और प्रेरणा ग्रहण करेंगे ।
अनुक्रम |
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1 |
उत्पत्ति, बालकीड़ा, वरप्राप्ति |
1 |
2 |
सुग्रीव के सहायक |
10 |
3 |
हनुमान्जी की सहमति से सुग्रीव का राज्याभिषेक |
19 |
4 |
सीताजी की खोज में |
29 |
5 |
समुद्र लंघन |
41 |
6 |
लंका-प्रवेश; |
49 |
7 |
सीताजी का दर्शन |
59 |
8 |
अशोकवाटिका-विध्वंस |
70 |
9 |
लंका दहन |
80 |
10 |
लंका से वापसी |
63 |
11 |
लंका-प्रयाण |
104 |
12 |
सेतु निर्माण में हनुमान्जी का योगदान |
111 |
13 |
समरांगण में श्रीहनुमान् |
118 |
14 |
मातृ-चरणों में |
141 |
15 |
हनुमदीश्वर |
146 |
16 |
जननी अंजना का दूध |
153 |
17 |
श्री रामदूत |
158 |
18 |
महिमामय हनुमान् |
164 |
19 |
भावुक भक्त |
170 |
20 |
श्रीहनुमान् को तत्वोपदेश |
181 |
21 |
श्रीरामाश्वमेध के अश्व के साथ |
186 |
22 |
रुद्ररूप में श्रीहनुमान् |
204 |
23 |
श्रीहनुमान्-गर्वहरप्रा क्रे निमिल |
210 |
24 |
व्यक्तित्व एवं दर्शन |
219 |