प्रकाशकीय
भारतीय चिंतन-परम्परा जीवन से जुड़े लौकिक प्रश्नों का ही हल नहीं खोजती, अलौकिक की भी पड़ताल करती है। जीवन से पहले की स्थितियाँ हो या बाद कीर ईश्वर के अस्तित्व से जुड़े विभिन्न प्रश्नों के उत्तर हो या ब्रह्माण्ड की ओर-छोर व प्राचीनता में झाँकने की अकुलाहट आदि, भारतीय मनीषा ने काल के अनन्त प्रवाह में ऐसे अनेक सवालों के उत्तर तलाशने की जिजीविषा कभी नहीं छोड़ी। इस क्रम में उसने जिन माध्यमों को अपनाया, जिनके बिना सवालों व उनके हल के साथ एकाकार ही नहीं हुआ जा सकता था, उनमें योग व अध्यात्म को प्रमुखतम स्थान प्राप्त है। सामान्य जीवन-व्यापार और उसकी प्रवृत्तियों से अन्तत सवालों की गहाराइयों में डूबा ही नहीं जा सकता, इसीलिए पंतजलि ने कहा है- 'योगश्चिलवृत्ति निरोध. । (चित्त की वृत्तियों के निरोध का नाम योग है)। स्वाभाविक रूप से इस योग को शब्दों में कुछ हद तक समेटा तो जा सकता है, सम्पूर्ण अभिव्यक्ति का दावा नहीं किया जा सकता, इसीलिए भगवान कृष्ण व बुद्ध जैसे महान योगी सब कुछ बताने के बाद भी यही कहते हैं- 'अप दीपो भव' (अपने दीपक आप बनो)। इस विस्तृत और असाधारण दार्शनिक चिन्तन परम्परा के योग पक्ष को जिस तरह महान चिन्तक और विद्वान डी. सम्पूर्णानन्द ने अपनी इस पुस्तक 'योगदर्शन' में शब्द दिये हें, सरल ढग से समझाया है, इसके चलते यह रचना अतुलनीय है। योग व अध्यात्म जैसे क्षेत्र सामान्यत. जटिल है, उन्हें सरल हिन्दी में इस तरह समझाना कि वह साधारण पाठकों को ग्राह्य हो और इन विशिष्ट क्षेत्रों की वैचारिक उँचाइयाँ भी अभिव्यक्ति प्राप्त कर सकें, इन सभी मापदण्डों पर यह पुस्तक खरी उतरती है । डी. सम्पूर्णानन्द ने ठीक ही लिखा है कि योग से चित्त को शान्ति मिलती है और वह 'आध्यात्मिक कामधेनु' है। उन्होंने इस पुलक को 21 अध्यायों में बाँटा है। इनमें योग व योगी के सम्बन्ध, दार्शनिक आधारभूमि, पुरुषार्थ चतुष्टय, योग की परिभाषा, योग के अंग, कर्मयोग, वैराग्य, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, समाधि, धारणा व ध्यान और पुरुषार्थ आदि से सम्बंधित विस्तृत व सारयुका विवरण पढ़ते ही बनता है। पुस्तक में जैन व सूफी दर्शन की भी चर्चा है जो सम्पूर्ण विषय को पूर्णता प्रदान करती है। उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, हिन्दी समिति प्रभाग की इस पुस्तक के चतुर्थ सस्करण का प्रकाशन अपनी पुन:प्रकाशन योजना के अन्तर्गत कर रहा है। आशा है, शोधार्थी व सुधी पाठक पूर्व की भांति इस सस्करण का भी स्वागत करेंगे।
निवेदन
भारतीय मनीषा की उँचाइयों का एक अनुमान इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि विभिन्न क्षेत्रों में अनवरत चिन्तन व खोज के बावजूद वह अतिम सच को पा लेने का दावा आज भी नहीं करती । ब्रह्माण्ड और स्वय को समझने की एक निरन्तर खोज-यात्रा सैकडों वषों से जारी है जो आज भी तमाम परिवर्तनों के बीच अपनी मूल पहचान बनाये रखे है । जहाँ तक आध्यात्मिक जिज्ञासाओं का प्रश्न है, भारतीय परम्परा में आत्मा, ब्रह्म, जीव, मोक्ष, निर्वाण, धर्म व ईश्वर जैसे शब्दों के साथ-साथ जिन गिने-बुने शब्दों का सर्वांधिक उपयोग हुआ है, उनमें योग व अध्यात्म प्रमुख हैं। योग वह जीवन-दृष्टि है, जिससे आध्यात्मिक प्रश्नों के साथ एकाकार तो हुआ ही जा सकता है, स्थूल जीवन भी सुखमय हो सकता है।
योग की इन्हीं व्यापक क्षमताओं/सम्भावनाओं को विभिन्न चिन्तन पद्धातियों के माध्यम से समेटने की सफल कोशिश है डॉ. सम्पूर्णानन्द की यह पुस्तक-'योगदर्शन'। डॉ. सम्पूर्णानन्द जी महान राजनेता तो थे ही, भारतीय सस्कृति के भी निष्णात विद्वान थे। योग पर उनका असाधारण अधिकार था और उन्होंने इसे हर तरह से गहरे आत्मसात् किया है । योग की उँचाइयों और वास्तविक अर्थो के सन्दर्भ में इसी पुस्तक में उन्होंने तुलसीदास जी के माध्य यम से एक अत्यंत सुन्दर उदाहरण दिया है कि जब भगवान राम वनवास पर जा रहै थे और बाद में जब उनका राजतिलक हो रहा था, तो दोनों ही अवसरों पर उनके श्रीमुख की काति एक जैसी थी। इस तरह, योग जैसे अत्यंत जटिल विषय को उन्होंने जिस तरह से राष्ट्रभाषा हिन्दी में शब्द दिये, औसत पाठकों तक इस विषय की उँचाइयों को पहुँचाने में सफल रहै, उसकी जितनी भी सराहना की जाय, कम होगी।
भारतीय आध्यात्मिक परम्परा व योग की तीन मुख्य धाराएँ हैं-वैदिक, बौद्ध व लेन मतों से सम्बन्धित। इन सभी के योग सम्बन्धी विचारों की सुगम'सरल अभिव्यक्ति इस पुस्तकों की महत्ता बढ़ाती है। डॉ. सम्पूर्णानन्द जी ने इस पुस्तक में अनेक। विद्वानों/पुरा गुसाको के उदाहरणों के माध्यम से योग को अत्यन्त स्पष्ट तौर पर पारभाषित किया है। उदाहरणार्थ 'मनुस्पृति का एक श्लोक देखें, जिसका अर्थ है-'योग द्वारा आत्मा का दर्शन करना सबसे बड़ा धर्म है।...आत्मा, जो हमारी सबसे अच्छी पथप्रदर्शक है।'
जिस तरह से इस पुस्तक के पूर्व सस्करण हाथों-हाथ बिक चुके हें उससे भी इसकी उँचाइयों का अनुमान लगाना कठिन नहीं है। और यह चतुर्थ सस्करण आपके सामने है, आशा है, सुधी पाठकों व जिज्ञासुओं के बीच यह संस्करण भी पूर्व की भाति लोकाप्रिय होगा, आत्मीयता पायेगा।
विषय-सूची |
||
भूमिका |
I-XIX |
|
अध्याय-1 |
योग शब्द का व्यापक प्रयोग |
1 |
अध्याय-2 |
योग और योगी के सम्बन्ध में विभिन्न विचार |
16 |
अध्याय-3 |
योग के सम्बन्ध में कुछ योगाचायों के वचन |
28 |
अध्याय-4 |
दार्शनिक आधार भूमि |
34 |
अध्याय-5 |
पतंजलि का संकल्प सूत्र |
58 |
अध्याय-6 |
पुरुषार्थ चतुष्टय-योग के अघिकारी |
62 |
अध्याय-7 |
योग की परिभाषा |
69 |
अध्याय-8 |
गुरुतत्व |
79 |
अध्याय-9 |
चित्त प्रसाद-कर्मयोग |
89 |
अध्याय-10 |
वैराग्य |
97 |
अध्याय-11 |
योग के अंग-यम |
101 |
अध्याय-12 |
योग के अंग-नियम-भक्तियोग |
108 |
अध्याय-13 |
आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार |
121 |
अध्याय-14 |
योग के अंग-धारणा और ध्यान |
142 |
अध्याय-15 |
योग के अंग-समाधि(सम्प्रज्ञात) |
166 |
अध्याय-16 |
योग के अंग-समाधि (असम्प्रज्ञात) |
183 |
अध्याय-17 |
परम पुरुषार्थ |
195 |
अध्याय-18 |
अन्य देशीय साधकों के अनुभव |
208 |
अध्याय-19 |
योगाभ्यास में विघ्न |
215 |
अध्याय-20 |
विभूतितयाँ |
224 |
अध्याय-21 |
योग और हम |
242 |
परिशिष्ट |
||
(१) जैन धर्म और योग |
249 |
|
(२) सूफीवाद |
250 |
|
उद्धृत योगसूत्रों की सूची |
263 |
|
सहायक पुस्तकों की सूची |
265 |
प्रकाशकीय
भारतीय चिंतन-परम्परा जीवन से जुड़े लौकिक प्रश्नों का ही हल नहीं खोजती, अलौकिक की भी पड़ताल करती है। जीवन से पहले की स्थितियाँ हो या बाद कीर ईश्वर के अस्तित्व से जुड़े विभिन्न प्रश्नों के उत्तर हो या ब्रह्माण्ड की ओर-छोर व प्राचीनता में झाँकने की अकुलाहट आदि, भारतीय मनीषा ने काल के अनन्त प्रवाह में ऐसे अनेक सवालों के उत्तर तलाशने की जिजीविषा कभी नहीं छोड़ी। इस क्रम में उसने जिन माध्यमों को अपनाया, जिनके बिना सवालों व उनके हल के साथ एकाकार ही नहीं हुआ जा सकता था, उनमें योग व अध्यात्म को प्रमुखतम स्थान प्राप्त है। सामान्य जीवन-व्यापार और उसकी प्रवृत्तियों से अन्तत सवालों की गहाराइयों में डूबा ही नहीं जा सकता, इसीलिए पंतजलि ने कहा है- 'योगश्चिलवृत्ति निरोध. । (चित्त की वृत्तियों के निरोध का नाम योग है)। स्वाभाविक रूप से इस योग को शब्दों में कुछ हद तक समेटा तो जा सकता है, सम्पूर्ण अभिव्यक्ति का दावा नहीं किया जा सकता, इसीलिए भगवान कृष्ण व बुद्ध जैसे महान योगी सब कुछ बताने के बाद भी यही कहते हैं- 'अप दीपो भव' (अपने दीपक आप बनो)। इस विस्तृत और असाधारण दार्शनिक चिन्तन परम्परा के योग पक्ष को जिस तरह महान चिन्तक और विद्वान डी. सम्पूर्णानन्द ने अपनी इस पुस्तक 'योगदर्शन' में शब्द दिये हें, सरल ढग से समझाया है, इसके चलते यह रचना अतुलनीय है। योग व अध्यात्म जैसे क्षेत्र सामान्यत. जटिल है, उन्हें सरल हिन्दी में इस तरह समझाना कि वह साधारण पाठकों को ग्राह्य हो और इन विशिष्ट क्षेत्रों की वैचारिक उँचाइयाँ भी अभिव्यक्ति प्राप्त कर सकें, इन सभी मापदण्डों पर यह पुस्तक खरी उतरती है । डी. सम्पूर्णानन्द ने ठीक ही लिखा है कि योग से चित्त को शान्ति मिलती है और वह 'आध्यात्मिक कामधेनु' है। उन्होंने इस पुलक को 21 अध्यायों में बाँटा है। इनमें योग व योगी के सम्बन्ध, दार्शनिक आधारभूमि, पुरुषार्थ चतुष्टय, योग की परिभाषा, योग के अंग, कर्मयोग, वैराग्य, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, समाधि, धारणा व ध्यान और पुरुषार्थ आदि से सम्बंधित विस्तृत व सारयुका विवरण पढ़ते ही बनता है। पुस्तक में जैन व सूफी दर्शन की भी चर्चा है जो सम्पूर्ण विषय को पूर्णता प्रदान करती है। उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, हिन्दी समिति प्रभाग की इस पुस्तक के चतुर्थ सस्करण का प्रकाशन अपनी पुन:प्रकाशन योजना के अन्तर्गत कर रहा है। आशा है, शोधार्थी व सुधी पाठक पूर्व की भांति इस सस्करण का भी स्वागत करेंगे।
निवेदन
भारतीय मनीषा की उँचाइयों का एक अनुमान इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि विभिन्न क्षेत्रों में अनवरत चिन्तन व खोज के बावजूद वह अतिम सच को पा लेने का दावा आज भी नहीं करती । ब्रह्माण्ड और स्वय को समझने की एक निरन्तर खोज-यात्रा सैकडों वषों से जारी है जो आज भी तमाम परिवर्तनों के बीच अपनी मूल पहचान बनाये रखे है । जहाँ तक आध्यात्मिक जिज्ञासाओं का प्रश्न है, भारतीय परम्परा में आत्मा, ब्रह्म, जीव, मोक्ष, निर्वाण, धर्म व ईश्वर जैसे शब्दों के साथ-साथ जिन गिने-बुने शब्दों का सर्वांधिक उपयोग हुआ है, उनमें योग व अध्यात्म प्रमुख हैं। योग वह जीवन-दृष्टि है, जिससे आध्यात्मिक प्रश्नों के साथ एकाकार तो हुआ ही जा सकता है, स्थूल जीवन भी सुखमय हो सकता है।
योग की इन्हीं व्यापक क्षमताओं/सम्भावनाओं को विभिन्न चिन्तन पद्धातियों के माध्यम से समेटने की सफल कोशिश है डॉ. सम्पूर्णानन्द की यह पुस्तक-'योगदर्शन'। डॉ. सम्पूर्णानन्द जी महान राजनेता तो थे ही, भारतीय सस्कृति के भी निष्णात विद्वान थे। योग पर उनका असाधारण अधिकार था और उन्होंने इसे हर तरह से गहरे आत्मसात् किया है । योग की उँचाइयों और वास्तविक अर्थो के सन्दर्भ में इसी पुस्तक में उन्होंने तुलसीदास जी के माध्य यम से एक अत्यंत सुन्दर उदाहरण दिया है कि जब भगवान राम वनवास पर जा रहै थे और बाद में जब उनका राजतिलक हो रहा था, तो दोनों ही अवसरों पर उनके श्रीमुख की काति एक जैसी थी। इस तरह, योग जैसे अत्यंत जटिल विषय को उन्होंने जिस तरह से राष्ट्रभाषा हिन्दी में शब्द दिये, औसत पाठकों तक इस विषय की उँचाइयों को पहुँचाने में सफल रहै, उसकी जितनी भी सराहना की जाय, कम होगी।
भारतीय आध्यात्मिक परम्परा व योग की तीन मुख्य धाराएँ हैं-वैदिक, बौद्ध व लेन मतों से सम्बन्धित। इन सभी के योग सम्बन्धी विचारों की सुगम'सरल अभिव्यक्ति इस पुस्तकों की महत्ता बढ़ाती है। डॉ. सम्पूर्णानन्द जी ने इस पुस्तक में अनेक। विद्वानों/पुरा गुसाको के उदाहरणों के माध्यम से योग को अत्यन्त स्पष्ट तौर पर पारभाषित किया है। उदाहरणार्थ 'मनुस्पृति का एक श्लोक देखें, जिसका अर्थ है-'योग द्वारा आत्मा का दर्शन करना सबसे बड़ा धर्म है।...आत्मा, जो हमारी सबसे अच्छी पथप्रदर्शक है।'
जिस तरह से इस पुस्तक के पूर्व सस्करण हाथों-हाथ बिक चुके हें उससे भी इसकी उँचाइयों का अनुमान लगाना कठिन नहीं है। और यह चतुर्थ सस्करण आपके सामने है, आशा है, सुधी पाठकों व जिज्ञासुओं के बीच यह संस्करण भी पूर्व की भाति लोकाप्रिय होगा, आत्मीयता पायेगा।
विषय-सूची |
||
भूमिका |
I-XIX |
|
अध्याय-1 |
योग शब्द का व्यापक प्रयोग |
1 |
अध्याय-2 |
योग और योगी के सम्बन्ध में विभिन्न विचार |
16 |
अध्याय-3 |
योग के सम्बन्ध में कुछ योगाचायों के वचन |
28 |
अध्याय-4 |
दार्शनिक आधार भूमि |
34 |
अध्याय-5 |
पतंजलि का संकल्प सूत्र |
58 |
अध्याय-6 |
पुरुषार्थ चतुष्टय-योग के अघिकारी |
62 |
अध्याय-7 |
योग की परिभाषा |
69 |
अध्याय-8 |
गुरुतत्व |
79 |
अध्याय-9 |
चित्त प्रसाद-कर्मयोग |
89 |
अध्याय-10 |
वैराग्य |
97 |
अध्याय-11 |
योग के अंग-यम |
101 |
अध्याय-12 |
योग के अंग-नियम-भक्तियोग |
108 |
अध्याय-13 |
आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार |
121 |
अध्याय-14 |
योग के अंग-धारणा और ध्यान |
142 |
अध्याय-15 |
योग के अंग-समाधि(सम्प्रज्ञात) |
166 |
अध्याय-16 |
योग के अंग-समाधि (असम्प्रज्ञात) |
183 |
अध्याय-17 |
परम पुरुषार्थ |
195 |
अध्याय-18 |
अन्य देशीय साधकों के अनुभव |
208 |
अध्याय-19 |
योगाभ्यास में विघ्न |
215 |
अध्याय-20 |
विभूतितयाँ |
224 |
अध्याय-21 |
योग और हम |
242 |
परिशिष्ट |
||
(१) जैन धर्म और योग |
249 |
|
(२) सूफीवाद |
250 |
|
उद्धृत योगसूत्रों की सूची |
263 |
|
सहायक पुस्तकों की सूची |
265 |